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पत्र आया - आप अपने प्रतिनिधि भेजें। ऐसा योग्य श्रावक नहीं है जो वहां जाकर जैन धर्म की छाप डाल सके। वह बहुश्रुत और चरित्रवान् होना चाहिए । ज्ञान हो और चरित्र न हो तो प्रभाव नहीं पड़ता। कोरा चरित्र हो, ज्ञान न हो तो सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं हो सकता। दोनों प्रकार का व्यक्तित्व चाहिए । अनेक निमंत्रण आते हैं पर इतने बड़े समाज में एक-दो व्यक्ति भी ऐसे नहीं हैं जो उपयुक्त प्रतिनिधित्व कर सकें ।
कुछ लोगों में नई बात सोचने का दिमाग नहीं है। पुरानेपन ने जकड़न दी है । भींत सहारे के लिए है, पर भींत शरीर से चिपक जाए तो? पुरानेपन में दृष्टि जकड़ जाए तो वर्तमान और भविष्य को देख ही नहीं सकता, विकास कुण्ठित हो जाता है । आचार्यों ने अपनी अनुभूति से कहा । क्या आज हमारा चिन्तन व देखने की शक्ति समाप्त हो गयी है? आज ज्ञान के साधन
बढ़े हैं, सामग्री बढ़ी है। पुरानी विरासत तो हमें मिली ही है, और आगे विकास करना चाहिए। एक आचार्य ने जो किया, दूसरा, तीसरा, चौथा उसे और आगे बढ़ाए, बढ़ाते-बढ़ाते केवलज्ञान तक पहुंच जाए।
भिक्षु स्वामी की कठिनाई थी कि उन्हें कई वर्षों तक भगवती सूत्र पढ़ने को नहीं मिला । साधन-सामग्री उपलब्ध नहीं थी । जयाचार्य को भाष्य, चूर्णि और टीकाएं मिलीं काम करने के
१. सन् १९७१ में मुनि नथमल (युवाचार्य महाप्रज्ञ) ने ये विचार अभिव्यक्त किए थे। इन विचारों की क्रियान्विति सन् १८८० में 'समणी' दीक्षा से हुई। वर्तमान में इस श्रेणी में अठासी समणियां हैं छत्तीस समणियां समणी श्रेणी से साध्वियां हो गई हैं। आज तक १२६ समणियां दीक्षित हो गई हैं।
४६ धर्म के सूत्र
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