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कठिनाई यह है कि प्रेरणा देने वाले लोग नहीं हैं। गृहस्थ उलझे बैठे हैं, साधुओं की अपनी सीमा है। तब तीसरी श्रेणी की कल्पना जगी, जिसका सेंथिया (बंगाल) से चिन्तन चल रहा है। इस बार काफी चिन्तन चला और इस निश्चय पर पहुंचे कि महावीर की २५वीं शताब्दी आ रही है। देश और विदेशों में जैन लोग इसको मनाएंगे। भारत सरकार भी इसको मनाने की सोच रही है। उस अवसर पर २५०० मुमुक्षुओं की दीक्षा हो, ऐसा निश्चय किया गया है। मुमुक्षु आधुनिक युग का साधु होगा।
संयम की दृष्टि से मुमुक्षु का जीवन साधु जैसा होगा। सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करेगा। परिवार से सम्बन्धित नहीं होगा। पद-यात्रा अनिवार्य नहीं होगी, लोच भी आवश्यक नहीं होगा। अपना परिग्रह नहीं रख सकेगा। उसकी निश्चित चर्या और वेशभूषा होगी। योग व अध्यात्म का प्रशिक्षण वह स्वयं लेगा और दूसरों को देगा। योग्यता कम-से-कम मैट्रिक होनी चाहिए। आगे का अध्ययन संस्था के माध्यम से हो सकेगा। मुमुक्षु की अवधि कम-से-कम एक वर्ष, अधिक-से-अधिक जीवनभर
और बीच का काल चाहे जितना रहे। बौद्धों में एक परिवार में एक व्यक्ति को भिक्षु बनना होता है, यही कारण है कि बर्मा, लंका जैसे छोटे देशों में लाखों भिक्षु मिलते हैं। एक-दो वर्ष के भिक्षु-काल में साधना भी हो जाती है और अध्ययन भी हो जाता है। मुमुक्षु के लिए ऐसे लोग नहीं होने चाहिए जो सेवा ले ही लें। पढ़े-लिखे भी चाहिए और काम करने वाले भी। विद्यार्थी जीवन के बाद यदि वे एक वर्ष तक ट्रेनिंग लें तो उनका जीवन और अधिक सफल हो सकता है।
पेरिस में विश्व धर्म सम्मेलन हुआ। गुरुदेव के पास एक
सम्यक्दृष्टि (१)
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