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जाए तब व्रती बनाना चाहिए। आगे चलकर एक अवस्था आने पर यानी साठ वर्ष के बाद घर के सब धन्धों को छोड़ पडिमाधारी या मुमुक्षु बनाना चाहिए। इस प्रकार इस क्रम में चार कक्षाएं हो जाती हैं-सुलभबोधि, सम्यक् दर्शन, व्रती, मुमुक्षु ।
मुमुक्षु
बहुत वर्षों से कल्पना चल रही थी कि साधु और श्रावक के बीच की एक तीसरी श्रेणी होनी चाहिए। साधुओं की कुछ अपनी सीमा होती है। गृहस्थ अपने गार्हस्थ्य में व्यक्त रहता है। उनकी भी अपनी समस्या है क्योंकि पीछे परिवार चलता है। परम्परा के बिना न साधु होते हैं और न श्रावक होते हैं। आज जैन-धर्म चलता है, उसके पीछे परम्परा का बहुत बड़ा हाथ है। भगवान महावीर के समकालीन पकुधकात्यायन, गोशालक, अजितकेश-कंबल आदि का नाम नहीं चलता, क्योंकि परम्परा नहीं चली। भगवान का तीर्थ आज भी चल रहा है। परम्परा का महत्त्व है और वह चलनी चाहिए।
थावच्चापुत्र की दीक्षा का प्रसंग आया। श्रीकृष्ण ने अधिकारी से कहकर घोषणा कराई कि कोई भी दीक्षा लेना चाहे, वह ले सकता है। पीछे परिवार की चिन्ता न करे। सारी जिम्मेवारी मैं अपने पर लेता हूं। दीक्षा की दलाली की। यह धर्म-प्रेरणा थी। संघ को समृद्ध करने के लिए श्रीकृष्ण ने जो किया, उससे इतना पुण्य हुआ कि वे तीर्थंकर होंगे। क्या आज कोई व्यक्ति ऐसा है जो धर्म की प्रेरणा देता हो? किसी को धर्म का एक शब्द समझाना भी धर्म-प्रेरणा है। सुलभबोधि को सम्यक्त्वी, सम्यक्त्वी को व्रती और व्रती को महाव्रती बनने की प्रेरणा दें। हमारे सामने
४४ में धर्म के सूत्र
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