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________________ सम्यक् दर्शन हमारी सफलता का सबसे बड़ा आधार है। जिसे सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं होता, वह ठीक देख नहीं सकता। जिसे सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं होता, वह ठीक जान नहीं सकता। जिसे सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं होता, वह ठीक चल नहीं सकता। हमारा ठीक देखना, ठीक जानना और ठीक चलना सम्यक् दर्शन पर आधारित है। आंख से दीखना बन्द हो जाए तो पैर भी ठीक ढंग से नहीं रखे जाते। आंख जीवन की हर प्रवृत्ति का मुख्य अंग है। सम्यक् दर्शन के बिना धर्म की प्रवृत्ति ठीक नहीं होती। धर्म के क्षेत्र में सबसे पहले प्रवेश करते ही सम्यक् दर्शन को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जब तक बच्चा दस वर्ष का होता है, उसमें धर्मानुराग कहा जा सकता है। सोलह वर्ष के बाद लड़के अथवा लड़कियों के लिए क्रम होना चाहिए। गुरु-धारणा कराई जाती थी, वह अच्छा क्रम था। वैदिक लोग यज्ञोपवीत देते हैं। ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है। पहला जन्म होता है जब वह दुनिया में आता है। दूसरा जन्म यज्ञोपवीत के समय होता है। मुनि भी द्विज होता है। उसका दूसरा जन्म दीक्षा के समय होता है। श्रावक द्विज होता है। उसका दूसरा जन्म सम्यक् दर्शन स्वीकार के समय होता है। सामूहिक रूप से ५०० व्यक्ति खड़े होकर जैन श्रावक की दीक्षा स्वीकार करें तो उससे एक वातावरण बनता है। समझ-बूझकर स्वीकार करने से फिर वह परम्परागत धर्म नहीं रहता। उधार में खतरा होता है और वह दुःखदाई भी होता है। पन्द्रह-सोलह वर्ष तक बच्चों को धर्मानुरागी या सुलभबोधि बनाना चाहिए। उसके बाद उसे समझा-बुझाकर सम्यक् दर्शन कराना चाहिए। उसके दो-तीन वर्ष के बाद जब परिपक्व हो सम्यक्दृष्टि (१) म ४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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