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सम्यकदृष्टि (१)
'कुण्ठापि यदि सोत्कंठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति। ममैषा भारती तर्हि, स्वस्त्येतस्य किमन्यया ॥'
भगवन्! मेरी वाणी आपकी स्तुति करने के लिए उत्कंठित है। चाहे शक्ति कम हो, लेकिन लगाव है। वह मेरी वाणी भारती है और उसके लिए मैं मंगल कामना करता हूं। वह वाणी मुझे नहीं चाहिए, जिसमें आपकी स्तुति न हो।
वाणी की सार्थकता तभी है जब उसका आराध्य की स्तुति में उपयोग हो। अन्यथा वह दिनभर चलती रहती है। जीवन की हर प्रवृत्ति की सार्थकता तभी है जब उसका उदात्त उपयोग हो। आचार्य ने यही भावना व्यक्त की है कि आपकी स्तुति में लगने से मेरी वाणी सार्थक है।
जीवन की सार्थकता के लिए हम सोचते हैं। हर व्यक्ति चाहता है, उसे सफलता मिले। मिलना और न मिलना दृष्टिकोण पर आधारित है।
रोगी रोग मिटाना चाहता है। रोग मिटना न मिटना उपचार की प्रक्रिया पर आधारित है। मन की अशान्ति कोई नहीं चाहता। शान्ति का मिलना उसके उपाय की अनुकूलता पर अवलंबित है।
४२ । धर्म के सूत्र
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