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पहचानता, वह दूसरों को तो क्या अपने आपको भी नहीं पहचानता। कष्टों से घबराकर मनुष्य कहता है-हे राम! मुझे यहां से उठा लो। मेरे समान दुःखी और कोई नहीं है।
दुःख है कहां? अपने आपको नहीं पहचानते, इसीलिए दुःख है। भिखारी भीख मांग रहा था। सामुद्रिकशास्त्र के ज्ञाता ने उसको देखा तो सोचा-यह भिखारी नहीं हो सकता। यदि है तो मैं अपनी विद्या को छोड़ दूंगा। वह उसके पास गया और उसका परिचय पूछा। फिर कहा-'तुम भिखारी नहीं हो। अपना सही परिचय बताओ।' तब भिखारी बोला- 'मैं सेठ का लड़का था। धन चला गया। लाड़ में पला था, इसलिए काम सीखा नहीं था।' सामुद्रिकशास्त्र के ज्ञाता ने कहा-'मुझे अपने घर ले चलो।' साथ-साथ गया, किवाड़ खोला, एक कमरे में गया। उससे कहा-'एक फावड़ा लाओ।' भिखारी बोला- 'मेरे पास नहीं है।' 'किसी से मांगकर ले आओ।' आखिर वह लाया और उसे खोदा तो एक-एक करके आठ शिलाएं निकलीं। उनके नीचे खजाना निकला। करोड़ों की सम्पत्ति देख भिखारी ने उनके पैर पकड़ लिये- 'मुझे क्या मालूम, इतना धन भीतर पड़ा था।'
हमारे भीतर भी खजाना पड़ा है, पर उसे खोजने का प्रयत्न नहीं करते। क्या यह हमारा अज्ञान नहीं है? क्यों नहीं धर्म का फावड़ा लेकर आठ कर्मों की आठ शिलाओं को हटा दें? फावड़े के बिना शिला दूर नहीं होती और उसके बिना खजाना नहीं मिलता। इसलिए आत्मा के खजाने को प्राप्त करने के लिए धर्म की अत्यन्त अपेक्षा है। धर्म को अनावश्यक मानने वाले सचमुच अपनी संपदा से दूर रह जाते हैं।
धर्म है आंतरिक संपदा - ३५
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