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________________ धर्म के साधन - तपस्या और ध्यान 'निर्ग्रन्यता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता । द्वयं विरुद्धं भगवन् ! त्वयि चैवोपपद्यते ॥' भगवन्! आप में दो विरोधी बातें एक साथ रहती हैं-निर्ग्रन्थता और चक्रवर्तित्व । पास में कुछ भी नहीं, पहनने व ओढ़ने के कपड़े भी नहीं, केवल शरीर के सिवाय कुछ भी नहीं । वह है आपकी निर्ग्रन्थता । दूसरी ओर चक्रवर्ती का साम्राज्य - समवसरण और साधु-साध्वियों की परिषद्, देवता की परिषद्, धर्मचक्र, छत्र और अशोक वृक्ष । कहां निर्ग्रन्थपन और कहां चक्रवर्तिपन ? बहुत सुन्दर बात आचार्य ने कही है- जो निर्ग्रन्थ होता है, वही वास्तव में चक्रवर्ती होता है। जिसके पास कुछ नहीं, सारी दुनिया उसकी हो जाती है। एक व्यक्ति रहने के लिए मकान बनाता है, वह एक लाख का बनाता है । कोई दो लाख का, तो कोई पांच, दस लाख का बना लेता है । परन्तु साधु कभी-कभी उससे भी अधिक मूल्यों के मकान में ठहरते हैं । जिसका एक अपना है, उसके लिए सीमा है । जिसका अपना कुछ भी नहीं, सब कुछ उसका है। योग के एक आचार्य ने लिखा है- अकिंचनोहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवे - तू अकिंचन बन जा, तीन लोक तेरा हो जाएगा। जिसमें अकिंचनता नहीं आई, ३६ धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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