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परन्तु उसे धर्म की बात प्रिय लगती है। उसमें न त्याग है और न संवर। केवल उसके संस्कार अच्छे हो जाते हैं। सम्यक् दर्शन
धर्म का प्रारम्भ सम्यक् दर्शन से होता है। जब तक मिथ्या दर्शन की गांठ नहीं खुलेगी तब तक धर्म करते हुए भी नहीं करते और जानते हुए भी नहीं जानते।
सम्यक् दर्शन दो प्रकार का होता है-एक व्यावहारिक और दूसरा नैश्चयिक। व्यावहारिक सम्यक् दर्शन में देव, गुरु और धर्म का ज्ञान, नवतत्त्व का ज्ञान, संवर और निर्जरा का ज्ञान होना अपेक्षित है। इनको रटने से सम्यक्दर्शी बन जाए तो कौन व्यक्ति इससे वंचित रहेगा?
निश्चय दृष्टि में वह सम्यक् दृष्टि होता है जिसके अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ, सम्यक्मोहनीय, मिथ्यामोहनीय और मिश्रमोहनीय-इन सातों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है। जिसको सम्यक् दर्शन होता है, उसे आत्मा और शरीर का भेदज्ञान स्पष्ट हो जाता है। इस सम्यक् दर्शन की उपलब्धि होने से धर्म का द्वार खुलता है। वह पुरानी मान्यताओं को और पुरानी धारणाओं को तोड़ देता है।
मुंह में नमक रहने से मिश्री का स्वाद नहीं मिलता।
दो चींटियां आपस में मिलीं। एक नमक के पर्वत पर रहती थी, दूसरी मिश्री के पर्वत पर। आपस में बातचीत हुई। दूसरी ने कहा-मेरा घर मीठा है। चाहे जिधर से खाओ, मीठा ही मीठा है। पहली ने कहा-मेरा घर तो खारा ही खारा है। दूसरी आमन्त्रण देकर पहली को मिश्री के पर्वत पर ले आई।
धर्म कैसे? - २१
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