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धर्म कैसे?
'न चान्धकारो न च चाकचिक्यं, न संशयो नापि विपर्ययश्च । न चापि रोगो जनयेत् प्रभावं,
सदा प्रसन्ना मम दृष्टिरस्तु ॥' मेरी दृष्टि सदा प्रसन्न व निर्मल हो। हर्ष और प्रसन्नता में भेद है। प्रिय वस्तु की प्राप्ति पर जो खुशी होती है, वह हर्ष कहलाता है। प्रसन्नता का अर्थ है निर्मलता। निर्मलता किसी वस्तु के निमित्त से नहीं होती। वह स्वाभाविक होती है, जैसे आकाश निर्मल है। हमारी दृष्टि प्रसन्न हो। न तो अंधकार चाहिए और न चाकचिक्य ही। अंधकार में दिखाई नहीं देता और चाकचिक्य में आंखें चुंधिया जाती हैं। संशय और विपर्यय भी नहीं चाहिए। संशय में निर्णय नहीं होता और विपर्यय में विपरीत ज्ञान होता है। मृग को ताल क्षेत्र में सूर्य की किरणें पड़ने से पानी का आभास होता है और उसके लिए वह दौड़ता है। कच्छ के रण में इस मृग-मरीचिका का हमने साक्षात्कार किया। धर्म का प्रारम्भ
मेरी दृष्टि प्रसन्न हो-यह भावना शुभ भावना है। धर्म
धर्म कैसे? = १६
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