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दो, अन्यथा नाव डुबो दूंगा।' सबने कह दिया- 'प्राण बचाओ, हम धर्म को छोड़ते हैं।' परन्तु अरहन्नक नहीं बोला। देव ने दूसरी व तीसरी बार फिर कहा, तब अरहन्नक बोला-'देव! डुबोना और मारना तेरे हाथ की बात है, परन्तु धर्म को छुड़ाना तेरे हाथ की बात नहीं है।' सब घबराकर अरहन्नक से कहने लगे-'इतना-सा कह दो, तुम्हारा क्या लगता है? नहीं तो सारे मारे जाएंगे।' अरहन्नक बोला-'धर्म चोला नहीं है जो उतारकर रख दूं। धर्म को कैसे छोडूं? धर्म है अपनी आत्मा का स्वभाव। वह अहिंसा, संयम और तप के रूप में प्रकट होता है। मैं उसे कैसे छोड़ दूं? वह छोड़ा नहीं जा सकता।' देव अरहन्नक की धर्मनिष्ठा के आगे नत होकर चला गया।
मनुष्य धर्म, संयम और तप के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकता। जिस समाज के मूल में अहिंसा, संयम भरा पड़ा है, उसको कैसे माने धर्म की आवश्यकता नहीं है? सामायिक, जप और स्वाध्याय करना धर्म के विकास की प्रक्रिया है।
यह हमारा शरीर है। बाहर से चमड़ी दिखाई देती है। भीतर हड्डियां, रक्त, स्नायु और धमनियां हैं। यदि चमड़ी उघाड़ दें तो आदमी कंकाल दीखेगा। भीतर दीखने वाले ये तत्त्व ही हैं या और कुछ भी है? शरीर के भीतर चेतना है वह हमें दिखाई नहीं देती।
रेल की पटरी पर इंजन दौड़ता है, पर वह पटरी को छोड़कर इधर-उधर नहीं चल सकता। यदि पटरी से उतर जाए तो वह दुर्घटना कहलाती है। चींटी जब चाहे पटरी पर चढ़ जाती है जब चाहे उतर जाती है। गाड़ी और मोटर चलाने से चलती है। सारी शक्ति के मूल में मनुष्य की चेतना का ही विकास
१६ में धर्म के सूत्र
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