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समाज के परिप्रेक्ष्य में अर्थहिंसा और अनर्थहिंसा
'स्तुतावशक्तिः तव योगिनां न किं, गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः । इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन्,
न बालिशोप्येष जनोपराध्यति ॥' 'भगवन्! मैंने आपकी स्तुति करनी चाही। फिर सोचा, मेरे में स्तुति करने की शक्ति है या नहीं। प्राचीन बड़े-बड़े आचार्यों ने आपकी स्तुति की है। क्या उनमें शक्ति थी? नहीं थी, फिर भी उन्होंने स्तुति की है। परन्तु उस स्तुति करने का आधार क्या था? उत्तर मिलता है कि उनमें गुणानुराग था। तब मैंने भी सोचा, मेरे में शक्ति नहीं है, किन्तु गुणानुराग तो है ही। यही सोचकर मैं आपकी स्तुति करता हूं। बहुत-से काम शक्ति से नहीं, गुणानुराग से हो जाते हैं।
स्तुति का अर्थ है-अपनी विनम्र भावना का प्रकाशन। अहं सबसे अधिक खतरनाक है। अहं से व्यक्ति की सारी क्षमताएं समाप्त हो जाती हैं। जिसमें विनम्रभाव है, उसमें जैसा होता है वैसा समझने की क्षमता आ जाती है।
समाज के परिप्रेक्ष्य में अर्थहिंसा और अनर्थहिंसा म १८३
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