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क्या यह आरोप सही है। इतिहास के सन्दर्भ में देखें तो मौर्यवंश के राजा अहिंसानिष्ट थे। उनके शासनकाल में अहिंसा का विकास हुआ था। उसके बाद गुप्तकाल आया। उसमें सम्राट् चन्द्रगुप्त, सम्प्रति, हर्षवर्धन अहिंसा में विश्वास रखते थे। उस समय हिन्दुस्तान का विस्तार हुआ था। भारत की सीमा अफगानिस्तान तक चली गई थी और मध्य एशिया तक चली गयी थी। गुप्तकाल और मौर्यकाल से पहले भारत का इतना विस्तार नहीं हुआ था। फिर क्या हम माने, अहिंसा समाज और देश को कायर बनाती है? विक्रम की शताब्दी का समय आता है, उधर शंकराचार्य होते हैं? आपसी फूट बढ़ती है, एक-दूसरे को निगलने की वृत्ति होती है तब मुसलमानों का आक्रमण होता है और देश परतन्त्र हो जाता है। आजकल गलत बातें पढ़ाई जाती हैं। जो लिखने वाले हैं, उन पर सम्प्रदाय का रंग चढ़ा हुआ है।
हिंसा जितनी आपसी कलह से प्रकट होती है उतनी और बातों से नहीं। मनुष्य-जीवन की सहज दुर्बलता है हिंसा। मनुष्य का सारा जीवन हिंसा पर टिका हुआ है। व्यापार, खेती, पीसना, पकाना आदि क्रियाओं में हिंसा होती है। जब शरीर को चलाना हो तो हिंसा करनी पड़ती है, उसके बिना जीवन चलता नहीं। यह आरंभजा हिंसा है।
जिस समाज ने या देश ने अपने अस्तित्व को बनाया, उसकी प्रभुसत्ता स्थापित की, उसके नागरिक अपने दायित्व को समझते हैं। कोई भी उस पर आक्रमण करे तो उसकी सुरक्षा करना उनका कर्तव्य है, क्योंकि उसका दायित्व उन्होंने अपने पर ले रखा है। यह विरोधजा हिंसा है।
इन दोनों हिंसाओं को छोड़ने से साधारण और सामाजिक
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