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दृष्टि का दोष है। जो सत्यं को जानना चाहता है, उसे व्रती होना चाहिए।
व्रती का अर्थ है रंगीन चश्मे को उतार देना। पहला व्रत है-अहिंसा। लोग अहिंसा व्रत को स्वीकार भी करते हैं। जिसने अहिंसा व्रत को स्वीकार किया या संकल्प लिया है, उसमें तेजस्विता न आए यह हो नहीं सकता। अहिंसा स्वीकार कर लेने पर शक्ति न बढ़े यह हो नहीं सकता। लोगों ने स्थूल रूप में अहिंसा को पकड़ा है। अहिंसा का अर्थ समझा है-जीवों को नहीं मारना। पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय के जीवों की सीमा करते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को भी संकल्पपूर्वक नहीं मारते। पंचेन्द्रिय तीतर, मोर आदि पक्षियों को भी, जिनका कभी काम नहीं पड़ता, मारने का त्याग करते हैं। जहां पशुओं का प्रश्न आता है वहां और अधिक कठिनाई पैदा हो जाती है और जहां मनुष्य का सवाल आता है वहां और अधिक कठिनाई अनुभव होती है। अहिंसा का मूल मर्म क्या है? इस पर ध्यान देना है। चींटी को नहीं सताने वाले, आदमी की उपेक्षा कर देते हैं, क्या यह ठीक है? जहां लेन-देन का प्रश्न आता है, वहां गरीब को इतना ऐंठते हैं कि वह तबाह हो जाता है, फिर भी उनका अहिंसा व्रत भंग नहीं होता।
अहिंसा व्रत स्वीकार करने वाले के सामने आरोप आता है कि उन्होंने समाज और देश को कायर बना दिया है। हिन्दुस्तान परतन्त्र बना, इसका कारण भी अहिंसा कहा जाता है। आज कोई भी समस्या आती है तो भारत के नेता अहिंसा से सोचकर रह जाते हैं। पाठ्यक्रम की पुस्तक में मिलता है और लड़कों को पढ़ाया भी जाता है कि अहिंसा से देश कायर बन गया।
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