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राजा ने संन्यासी के पैर पकड़ लिये और कहा-'आप मेरे धर्म-गुरु हैं, क्योंकि आप सीमातीत हैं। दूसरे सारे लोग सीमा में बंधे हुए हैं फिर चाहे वह सीमा बीस एकड़ की हो या पचास एकड़ की। सीमा तो आखिर सीमा ही होती है। धर्म उस व्यक्ति को मिलता है जो सीमातीत हो जाता है।
धर्म सीमातीत होता है, मूल्यों से परे होता है। मूल्य की चर्चा कभी धर्म की चर्चा नहीं हो सकती, केवल उसकी परिधि की चर्चा हो सकती है। आज परिधि की चर्चा अधिक है, केन्द्र की कम। जब तक केन्द्र को नहीं पकड़ा जाता, मूल तथा हस्तगत नहीं हो सकता। आज केन्द्र और परिधि को पहचानने की दृष्टि साफ होनी चाहिए। धर्म का केन्द्र और धर्म की परिधि कभी एक नहीं होती। धर्म आत्मा की पवित्रता है और परिधि व्यवस्थाएं हैं। रुपयों का विनिमय परिधि में होता है, केन्द्र में नहीं। जब परिधि को केन्द्र मान लिया जाता है तो भ्रांतियां फैलती हैं। परिधि की बात परिधि की सीमा में जरूरी है और केन्द्र की बात केन्द्र की सीमा में जरूरी है। यह हो सकता है कि केन्द्र के साथ परिधि की बात सोची जाए, किन्तु दोनों का मिश्रण नहीं करना चाहिए। धर्म का धर्म की दृष्टि से मूल्यांकन करें और उसे उसी दृष्टि से तौलें।
यह एक लम्बी चर्चा है। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि धर्म का एकमात्र साधन है-त्याग, संयम। दूसरा
और कोई साधन नहीं है धर्म का। अपना त्याग, अपना संयम (वृत्तियों और संज्ञाओं का संयम), बस इतना ही है धर्म! यदि मूल्य की भाषा में आंका जाए तो कितना सस्ता! एक कौड़ी भी नहीं खर्च करनी पड़ती। ध्यान धर्म है, सामायिक धर्म है,
धर्म : कितना महंगा कितना सस्ता? - ६
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