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सामने है।
भारतीय मानस में एक बहुत बड़ी जिज्ञासा रहती है कि आत्मा का दर्शन, परमात्मा का दर्शन, आत्मा का साक्षात्कार, परमात्मा का साक्षात्कार मिले। यह संस्कारगत, रक्तगत एक जिज्ञासा होती है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है-यदि तुम आत्म-दर्शन चाहते हो तो ज्ञान के द्वारा अन्तर्मुख बनो। जब तक तुम्हारा मुख बाहर की ओर रहेगा, तुम्हें अन्तर्दर्शन नहीं होगा। जैसे ही तुमने अपने दर्शन को मोड़ा और अन्तर्मुख किया, भीतर की ओर मोड़ा तो आत्मा का दर्शन तुम्हें हो जायेगा। जब तक आत्म-दर्शन नहीं होगा तब तक हमारी भ्रान्त कल्पनाएं नहीं मिटेंगी। सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि दवाइयां लेते जाओ और जीते जाओ। यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है। दवाइयां लेते जाओ और नींद लेते जाओ। नींद लेनी है तो दवा। खाना है तो दवा। पचाना है तो दवा। पता नहीं और क्या होगा। कोई काम करना है तो दवा और फिर कभी यह आएगा कि आदमी बनना है तो दवा। और इसके सिवाय क्या मिलेगा फिर? एक बहुत बड़ी भ्रांति पाल ली, यह करते जाओ। यह शार्टकट कर दिया। व्यक्ति ने नहीं सोचा, जब तक प्राणशक्ति नहीं जागेगी तब तक दवा लेने से क्या होगा? दवा एक साधन हो सकती है किन्तु नींद के लिए तो दवा कोई साधन नहीं है। इतनी तेज जहरीली दवाइयां लेते हैं दिन में दस-बीस गोलियां, तो ऐसा लगता है कि अपना कुछ बचा नहीं, सारा शरीर ही दवा बन गया। ये भ्रान्तियां जो बनी हुई हैं, ये भ्रान्तियां टूटें।
वर्तमान युग में धर्म का यदि कोई सार्वभौम रूप हो सकता
धर्म का सार्वभौम रूप-ध्यान में १६३
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