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ने स्थिति को पढ़ा तो लगा वातावरण हाथ से जा रहा है। तब वे बोले
'सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी, संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि
कामी भवत्यनुदिनं वद कोत्र हेतुः।' सिंह मांस खाता है, फिर भी वह वर्ष में एक बार भोग करता है। कबूतर दाने चुगता है और कंकर चुगता है, फिर भी प्रतिदिन भोग करता रहता है। इसका हेतु क्या है? भोजन ही इसका हेतु हो नहीं सकता। आचार्य के यह कहते ही सारा वाातवरण बदल गया। सब कहने लगे, आचार्य ने ठीक कहा है।
मूलस्रोत मन की आसक्ति है। आसक्ति और अनासक्ति के आधार पर ही परिणति होती है।
खाने के लिए पहला प्रश्न आता है-क्यों खाते हैं? उत्तर मिलेगा-जीवन को चलाने के लिए। क्या सचमुच जीवन को चलाने के लिए खाते हैं? कई लोगों को खाने का ज्ञान भी नहीं है। जीवन चलाने के लिए नहीं है, जीवन हमारी सफलता का माध्यम है। जो जीते हैं, वे ही दुनिया में काम करते हैं। जीने वाले भी कई ऐसे हैं, जो मरे हुए से अधिक हैं। वे अकर्मण्य और निराशा का जीवन जीते हैं। हम क्या कर सकते हैं? हम गरीब हैं। कई अपने को अतिसन्तोषी मानते हैं। वास्तव में वह सन्तोष नहीं है, जीवन की अकर्मण्यता है। वे लोग 'क्यों' का अर्थ नहीं समझते। खाना इसलिए खाना चाहिए कि जिससे ज्ञान, दर्शन और चरित्र की साधना की जा सके।
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धर्म के सूत्र
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