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के साथ जुड़ी हुईं व्यवस्थाओं का क्षण एक नहीं होता। धर्म न महंगा होता है, न सस्ता। ये दोनों शब्द अर्थ-सापेक्ष हैं। धर्म सीधा-सादा होता है। अर्थ के साथ धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म की आराधना पवित्र शरीर, पवित्र मन और पवित्र वाणी के द्वारा होती है। इसमें केवल तीन ही तथ्य अपेक्षित हैं-शुभ मन का योग, शुभ वाणी का योग और शुभ शरीर का योग। परन्तु आज का मानव विचित्र बन गया है। आदमी त्याग और बलिदान करना नहीं चाहता। वह धन देकर धर्म का लाभ उठाना चाहता है। वह स्वयं धर्म की आराधना नहीं करता किन्तु अर्थ के विनिमय से धर्म की आराधना का लाभ उठाना चाहता है तो यह कैसे सम्भव हो सकता है? यह चिन्तन की दरिद्रता है। इस चिन्तन ने धर्म की गरिमा को बहुत ठेस पहुंचाई है तथा धर्म को भी विक्रय की वस्तु बना डाला है। जैसे पैसे से अन्यान्य उपभोग की वस्तुएं खरीदी जाती हैं वैसे ही धर्म को भी हम पैसे से खरीदने की भूल कर बैठते हैं। इस क्रय-विक्रय की मानसिकता ने ही 'सस्ते और महंगे' के प्रश्न को पैदा किया है।
एक कथावाचक कथा कह रहा था। इतने में ही उसका पुत्र दौड़ता हुआ आया और बोला-'पिताजी! आज हल टूट गया। वर्षा अच्छी हुई है। हल के बिना जुताई और जुताई के बिना खेती कैसे होगी?' कथावाचक बोला-'चिन्ता मत कर, अभी व्यवस्था कर देता हूं।' कथा पूरी होते-होते पंडितजी ने प्रसंगवश कहा- 'उपासको! एक महत्त्वपूर्ण बात बता रहा हूं, ध्यान से सुनो। तुम लोग शरीर से तपस्या नहीं कर सकते, ज्ञान की आराधना नहीं कर सकते और न कोई धर्म का विशिष्ट आचरण ही कर सकते हो। त्याग और तपस्या का आचरण
६ धर्म के सूत्र
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