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सूत्र दिए और उनका जो विस्तार श्रीमज्जयाचार्य ने किया, वैसा प्रतिपादन बहुत कम आचार्यों ने किया है।
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आचार्य भिक्षु ने व्यवस्था और धर्म - आराधना की सूक्ष्म विवचेना की है। इन दोनों के बीच उन्होंने एक सूक्ष्म रेखा खींची है । एक व्यक्ति धर्मगुरु के दर्शन करने, धर्माराधना करने रेल में बैठकर कहीं जाता है तो वह धर्म नहीं है । धर्म वह है जिस क्षण में वह मन, वचन और काया से निरवद्य आचरण करता है । धर्म उसी क्षण का होता है, शेष का नहीं। शेष क्षण की प्रवृत्तियां उसके साथ जुड़ी हुई व्यवस्थाएं हैं । व्यवस्थाएं अलग होती हैं और धर्म अलग होता है । इस तथ्य को हम उचित रूप से समझ लें कि पहले पीछे जो जुड़ता है, वह उसकी अनिवार्यता है, धर्म नहीं । धर्म उसी क्षण में है जिसमें पाप का अंशमात्र भी अवकाश नहीं है। पूरी प्रवृत्ति धर्म तब होती है जब उसमें सावद्यता नहीं होती। कोई व्यक्ति गुरु- दर्शन की भावना से घर से पैदल चल पड़ता है। भूमि को देख-देखकर चलता है । लम्बी यात्रा तय कर गुरु दर्शन करता है । इस स्थिति में इसका प्रस्थान धर्म कहा जा सकता है । किन्तु अपनी दुर्बलता के कारण ऐसा कर नहीं सकता, वह वाहन का प्रयोग करता है। वाहन का प्रयोग वह धर्म के कारण नहीं, अपनी दुर्बलता के कारण करता है । धर्म वह है जिस क्षण में स्वाध्याय करते हैं, साधु-साध्वियों की उपासना करते हैं । अयतनापूर्वक आना-जाना, उठना-बैठना धर्म नहीं हो सकता । सामान्य आने-जाने के क्षण को और धर्म की आराधना के क्षण को एक नहीं माना जा सकता। दोनों का स्वरूप भिन्न है। एक सावध है, दूसरा निरवद्य ।
इसी प्रकार धर्म की आराधना का क्षण और धर्म की आराधना
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धर्म: कितना महंगा कितना सस्ता ? ५
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