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दूसरा चित्र है आज के भारत का, जो धार्मिक देश कहलाता है। जहां मंदिर, मठ, उपाश्रय हजारों-हजारों हैं, गीता का पाठ करने वाले हैं, त्रिपिटकों का पाठ करने वाले हैं, वहां अप्रामाणिकता भयंकर रूप में है। कुछ वर्ष पहले की घटित एक घटना है। एक आदमी गांव से घी लेकर आया; दूसरा व्यक्ति शहरी था, उसने घी को देखा तो ठीक लगा। वह घी बेचना चाहता था
और यह लेना चाहता था। उसने बर्तन सहित घी को तोल लिया। बदले में अनाज भरा एक बड़ा बर्तन दे दिया। गांव वाला बापस जाते समय सोचने लगा-मैंने शहरी को ठग लिया। घर गया। बर्तन से अनाज निकाला। ऊपर अनाज; नीचे कंकर निकले। वह सोचने लगा-बनिया ठग जाति होती है। उधर उस शहरी ने घी उंडेला तो ऊपर घी, नीचे गोबर निकला। उसने सोचा-मैं ठग गया। वास्तव में दोनों ठगे गए।
आज आदमी एक-दूसरे को ठग रहा है। लाभ किसी को नहीं है। मिलावट करने वाला व्यापारी जब दूध लेने जाता है तो माथा ठनकता है, कितना कलिकाल है, दूध भी शुद्ध नहीं मिलता। जब वह स्वयं मिलावट कर बेचता है तब वह नहीं सोचता, मैं क्या कर रहा हूं? हर आदमी दूसरे को ठगना चाहता है और स्वयं ठगा जा रहा है। दवाई भी मिलावटी मिलती है। एक घर में मिलावट का इन्जेक्शन आया। उससे उसकी लड़की मर गई, तब उसे पता चला कि यह तो मेरी ही कम्पनी का इन्जेक्शन था।
जहां समाज इतना पतित हो जाता है कि कोई भी चीज शुद्ध नहीं मिलती, वहां मन शुद्ध कैसे रहेगा? उसके बिना धर्म की आराधना कैसे कर पाएंगे? जो व्यक्ति अप्रामाणिकता से
प्रामाणिकता का मूल्य म १२५
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