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नमस्कार कर चला गया।
यह दृष्टि उसमें होती है, जिसने भय को जीता है। भय वही जीत सकता है, जिसने नश्वर शरीर में अविनश्वर आत्मा को देखा है।
'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है, तुमने मन्त्र पढ़ाया। आत्मा अचल अरुज शिव शाश्वत, नश्वर है यह काया। आत्मा आत्मा के द्वारा ही आत्मा में लय पाए।
चैत्यपुरुष जग जाए ॥' आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है-यह एक छोटा-सा मन्त्र है। इस भेदविज्ञान को सिद्ध कर लेना अनेक व्याधियों से मुक्त होना है।
कुछ वर्ष पहले एक जैन श्रावक मिला। उसने बताया-मेरे टी. वी. हो गई थी। तीसरे दर्जे तक पहुंच गई थी। डॉक्टर ने कहा-इसकी कोई दवा नहीं है, कुछ दिन और जीओगे। मैंने सब चिकित्सा को छोड़ केवल ध्यान शुरू किया। आत्मा
और शरीर के भेदज्ञान का ध्यान किया। एक मास के बाद डॉक्टर के पास गया। निरीक्षण कर डॉक्टर ने कहा-रोग कुछ नहीं है। टी. वी. समाप्त है। क्या दवा ली थी? रोग कैसे मिटा? मैंने भेदज्ञान की बात बताई। यह बात डॉक्टर के समझ में
आने वाली नहीं थी। क्योंकि वे कीटाणुओं से बीमारी मानते हैं। किन्तु यह सही बात है कि बीमारी चली गई। मैंने स्वयं दूसरे लोगों को बताया। उनको भी लाभ हुआ।
भेदविज्ञान से न केवल आत्मिक शक्ति जागती है, बल्कि व्यावहारिक जीवन को भी शक्ति मिलती है। ममत्व कम होता
धार्मिक की कसौटी म ११६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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