________________
करने वालों को भी आती है और न करने वालों को भी आती है। दोनों में फर्क यह पड़ता है कि अधार्मिक रोग में बिलखता है, हाय-हाय करता है, पड़ोसी को भी जगा देता है। दूसरी ओर स्थिति यह है कि रोग चाहे कितना ही भयंकर हो, धार्मिक उसे शांत भाव से सहन कर लेता है। दूसरों को पता चलता कि इसको कष्ट हो रहा है। मैंने देखा कुन्दनमलजी स्वामी को। कालूगणी जोधपुर में चातुर्मास बिता रहे थे। कुन्दनमलजी स्वामी के मस्से में घाव हो गया। डॉक्टर ने कहा-चीरना होगा। चौथमलजी स्वामी कैंची से चीरने लगे। बिना सुंघनी के वे मूर्ति की तरह बैठे रहे। कहने लगे-चौथमलजी! काटना हो जितना एक साथ काट लो। शांत भाव से सहन करने की शक्ति कहां से आती है? जिसमें यह भेदज्ञान हो जाता है कि आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, उसमें सहने की शक्ति बढ़ जाती है।
मैंने अपनी माता साध्वी बालूजी से कहा-माला जपती हो, यह तो ठीक है। इसके साथ थोड़ा और जोड़ दो-आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। इस मंत्र को उन्होंने अच्छे ढंग से पकड़ लिया। जब कभी मैं जाता और पूछता-'कैसी हैं?' तो यही उत्तर मिलता-'मेरे कोई बीमारी नहीं है, बिलकुल ठीक हूं, परम शान्ति है।' मैंने फिर कहा- 'बीीमरी को बीमारी न कहना क्या असत्य नहीं है?' उन्होंने उत्तर दिया- 'नहीं है। आत्मा में शांति है, बीमारी शरीर को है, मेरे नहीं है।'
वह साध्वियों से कहती हैं-अब तुम्हारा-हमारा सम्बन्ध नहीं है, तुम तुम्हारे और मैं अपने में।
धर्म की मूलभित्ति यही है कि आत्मा और शरीर को भिन्न समझ लेना। एक आचार्य ने लिखा है- 'आज तक जितने सिद्ध
धार्मिक की कसौटी : ११७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org