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तो कल्पना लेकर । रोटी खाता है तो चिन्ता लेकर । हमारे सिर पर संस्कारों का कर्जा है। कर्जदार आदमी सुखी कैसे हो सकता है ? कर्ज को चुकाना दुःख से मुक्त होना है। हमारी चेतना पर बहुत सारे आवरण आ गए हैं। वे दुःखी बनाते हैं । उनमें एक है परतन्त्रता का दुःख और दूसरा है स्मृति का दुःख ।
परवशता
समाज में परतन्त्रता से बढ़कर कोई दुःख नहीं है । मनुस्मृति में कहा है- 'सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम् ' - परवशता दुःख है, स्वाधीनता सुख है। स्वाधीन मनुष्य रूखी-सूखी रोटी भी आनन्द से खाता है । पराधीनता में चिकनी-चुपड़ी रोटी भी सुख नहीं देती। नौकर खाने बैठता है, उस समय मालिक बोलता है - पत्र डालकर आओ, तो इच्छा हो या न हो, जाना ही पड़ता है । आत्मा स्वाधीनता चाहती है । ऊपर से बंधन थोपा जाता है । परिस्थितिवश परतंत्र होना पड़ता है । शालिभद्र समृद्धिशाली था । उसके पास अपार सम्पत्ति थी । एक बार का प्रसंग है कि नेपाल के व्यापारी रत्नकंबल को बेचने के लिए चले । रत्नकंबल बहुमूल्यवान् थी । उसकी विशेषता थी कि विशिष्ट जाति के चूहों के रोम से बनी हुई थी, जिसकी धुलाई अग्नि से होती थी । उस समय मगध का नाम चमक रहा था । उस आशा से वे मगध में आए। शहर में घूम रहे थे। लोगों का मन ललचाता था, परन्तु मूल्य सुनकर वे अवाक् रह जाते थे । वे व्यापारी घूमते-घूमते राजा श्रेणिक के पास पहुंचे। मूल्य सुनकर राजा ने उत्तर दिया- मेरा कोष राज्य की सुरक्षा के लिए है, बढ़िया कपड़े खरीदने के लिए नहीं । व्यापारी निराश हो गए। वापस
११२ धर्म के सूत्र
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