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जाते समय वे आपस में बातें करते जा रहे थे कि मगध का नाम सुनकर आए थे, पर यहां कोई खरीदने वाला नहीं मिला। गवाक्ष से झांकती हुई भद्रा सेठानी से उन व्यापारियों को देखा
और बातें सुनीं। सेठानी ने सोचा-यह तो हमारे नगर की अवज्ञा है। ये आगे चलकर निन्दा करेंगे। उसमें नागरिकता थी। आज भारतीय नहीं सोचते कि मिलावटी माल भेजेंगे तो भारत की क्या प्रतिष्ठा रहेगी, अपना काम ही बनाना जानते हैं। वे अपने देश के प्रति कुछ नहीं सोचते। जिनके सामने पैसा ही सब कुछ होता है वे चरित्र में दरिद्र हो जाते हैं।
भद्रा ने उन लोगों से पूछा-कहां से आए हो? उन्होंने कहा-नेपाल से। भद्रा ने पूछा-किसलिए? वे बोले-कम्बल बेचने के लिए। भद्रा ने पूछा-कितनी हैं? निराशा में आशा संजोते हुए उन्होंने कहा-सोलह हैं। भद्रा बोली-बत्तीस होतीं तो मुझे खरीदने में सुविधा होती। व्यापारी सन्न रह गए। पहले मोल पूछे बिना कैसे कहा इस प्रकार। वे सोच ही रहे थे कि सेठानी ने मुनीम से कहा-इनकी सब कम्बलें खरीद लो। इधर रानी ने राजा से कहा-एक कम्बल खरीदते तो मेरे काम आ जाती। फिर राजा ने पता लगाया। समाचार मिला कि सभी सोलह कम्बलें खरीद ली गई हैं। राजा ने पूछा-किसने खरीदी, शालिभद्र का नाम बताया। राजा ने सोचा-मेरे राज्य में ऐसे धनी रहते हैं। मुझे मिलना चाहिए। राजा उससे मिलने के लिए उसके घर गया। भद्रा ने शालिभद्र को बताया कि मगध सम्राट आए हैं। शालिभद्र बोला-खरीदकर भीतर रख दो। मां ने कहा-ऐसा मत बोलो-यह अपना स्वामी है। शालिभद्र के कान में 'स्वामी' शब्द चुभा। मेरे पर स्वामी हैं। वह अनमना-सा हो गया। राजा श्रेणिक उसके
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