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दुःख है ।
साम्यनिष्ठ मनुष्य अनुकूल स्थिति में फूलता नहीं और प्रतिकूल स्थिति में मुरझाता नहीं । वह हर स्थिति में एकरूप रहता है। 'उदये सविता रक्तो, रक्तश्चास्तमये तथा । संपत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता ॥ '
- सूर्य उदयकाल में लाल रहता है और अस्तकाल में भी लाल रहता है । महापुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में एकरूप रहते हैं । यह वस्तु-निरपेक्ष आनन्द है । चाहे दुःख के साधन मिलें, चाहे सुख के साधन मिलें, दोनों में समभाव रहना वास्तविक सुख है।
लोग भगवान से याचना करते हैं - भगवन् ! दुःख न आए। यह कैसी याचना ! इस दुनिया में जो भी शरीर धारण करेगा, उसे दुःख आएगा ही ।
श्रीकृष्ण से कुन्ती ने मांगा - दुःख आए तो सहन करने की शक्ति प्राप्त हो ।
मैं देखता हूं, साध्वी बालूजी को काफी वेदना है । जब मैं पूछता हूं कि पीड़ा है क्या, तो कहती हैं- पीड़ा नहीं है । पीड़ा को भी वे समभाव से सहती हैं । उनकी श्रद्धा भिक्षु स्वामी पर है। उन्हीं का हरदम जाप करती हैं। मैंने उनसे कहा- एक मन्त्र का जाप करो - 'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः ' - आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। यह बात उनको बहुत जंच गई। मैंने जब कभी पूछा तो यही उत्तर मिला- आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है । जिसको आत्मा का भेदज्ञान हो जाता है, उसे फिर कष्ट नहीं होता ।
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