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इस भील की दृष्टि में धनुष्टंकार से अधिक नहीं था ।
क्या कपड़ा पहनना सुख है ? सर्दी में कम्बल सुहावनी लगती है और गर्मी में वही अप्रिय हो जाती है। तो फिर प्रश्न है सुख क्या है, जो सुख ही हो, दुःख न हो ?
भगवान महावीर ने कहा- जो निर्जीर्ण हो गया है, वह सुख है। जो संस्कार चला गया, वह सुख है । दुःख इससे विपरीत है। जो पाप कर्म है, वह दुःख है । जो संस्कार बंधा हुआ है, वह दुःख है ।
व्यक्ति को गाली सुनने में दुःख की अनुभूति होती है और प्रशंसा सुनने में सुख की अनुभूति होती है ।
मेवाड़ के राजा भीमसिंहजी के पास चारण गया और बोला- 'भीमा ! तूं तो भाटो, मोटा भाखर मांहिलो'
राणा भीम ! तुम बड़े पर्वत के पत्थर हो । यह सुन राणा कोप में आ गए । चारण ने सोचा, काम बिगड़ गया । तत्काल अगला पद बना दिया- 'कर राखूं काठो, शंकर ज्यूं सेवा करूं ।'
तुम पत्थर तो हो, पर शंकर हो । मैं शंकर की भांति तुम्हारी सेवा करूं। इतने में राणा प्रसन्न हो गए ।
एक क्षण में प्रसन्न और एक क्षण में नाराज होना - अपने भाग्य को दूसरों के हाथ में बेचना है। ऐसे लोगों का राजी होना भी भयंकर हो जाता है। थोड़े सम्मान में फूलने वाला अपमान में कुम्हला जाता है । क्या सम्मान और असम्मान भी सुख और दुःख है? नहीं ।
तो फिर सुख क्या है? सुख है - समता । लाभ और अलाभ, सुख और दुःख, जीवन और मरण, निन्दा और प्रशंसा तथा मान और अपमान में समभाव रहना सुख है और विषम रहना
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सुख क्या है ? (१)
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