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रोटी को पीना चाहिए।
दुनिया में हर वस्तु बदलती है । मनुष्य भी बदलता है। संस्कारों को भी बदलना चाहिए। शिविर भी इसलिए कि बच्चों के संस्कार बदलें । धार्मिक होने का अर्थ है - रोज परिवर्तन करना । धार्मिक होकर जो न बदले वह धार्मिक नहीं है। क्रोध की आदत बदलनी है । गाली देने की आदत पड़ गई है, उसे बदलना है । चुराने की आदत बदलनी है, अहंकार को बदलना है । वह धार्मिक नहीं है, जिसके मन में बदलने की भावना नहीं होती । वह साधु नहीं, जो स्वभाव को न बदले । मन के प्रतिकूल हो उसे भी सहन करना चाहिए। स्वार्थ की भावना नहीं रहनी चाहिए । वह अनर्थों की जड़ है। आज समाज की यह कठिनाई है । एक व्यक्ति दूसरे के घर के सामने गंदगी डालता है। दूसरा उसके सामने डालता है । परिणाम में दोनों को गंदगी मिलती है, क्योंकि स्वार्थ-विसर्जन या निःस्वार्थ की भावना दोनों में नहीं है। व्यक्ति का कल्याण तब तक नहीं होता जब तक निःस्वार्थ भावना न आए। धर्म का स्थान परमार्थ है । लोग अपने लिए बहुत सोचते हैं। अपने हित और अपने स्वार्थ के लिए सोचते हैं। वहीं लड़ाई पैदा होती है, जहां हितों का संघर्ष होता है । हितों का संघर्ष नहीं, सामंजस्य होना चाहिए ।
एक किसान खेती करता था। उसके दो लड़कियां थीं । एक किसान के घर ब्याही थी, दूसरी कुम्हार के घर । पिता लड़कियों से मिलने गया । पहले कुम्हार के घर गया। पूछा - 'कैसा हाल है?' उत्तर मिला- 'अच्छा ही है, किन्तु ।' पिता ने पूछा- 'किन्तु क्या है?' 'घड़ों का आवां पक रहा है, बादल मंडरा रहे हैं, वर्षा न आए तो अच्छा है। वर्षा आ गई तो आवां खराब हो
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संस्कारों का परिवर्तन १०१
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