SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में जैन धर्म का योगदान/७७ ४. संक्रमण-एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति में संक्रान्त होना। कर्म का उदय समय पर ही नहीं होता, उससे पहले भी हो सकता है। यदि उसका उदय नियत समय पर ही हो तो कर्मवाद एक प्रकार का नियतिवाद ही हो जाता है। नियतिवाद में पुरुषार्थ की सार्थकता नहीं होती। उसकी व्यर्थता होने पर आत्मा की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होता। भगवान् महावीर ने बताया कि मनुष्य अपने आंतरिक प्रयत्न से बंधे हुए कर्म की अवधि को घटा भी सकता है और बढ़ा भी सकता है। उसकी फल-शक्ति को मन्द या तीव्र कर सकता है। इस प्रकार नियत समय से पूर्व कर्म भोगा जा सकता है। तीव्र फल पाने वाले कर्म को मन्द फल वाले के रूप में और मन्द फल वाले को तीव्र फल वाले के रूप में भोगा जा सकता है। पुण्य-कर्म के परमाणुओं का पाप के रूप में और पाप-कर्म के परमाणुओं का पुण्य के रूप में संक्रमण किया जा सकता है। कर्म के इस सिद्धांत ने मनुष्य को निराशा, अकर्मण्यता और पराधीनता की मनोवृत्ति से बचाया । यदि वर्तमान का पुरुषार्थ सत् हो तो अतीत के अशुभ कर्म-संस्कारों को क्षीण कर या शुभ में बदलकर मनुष्य अन्धकार में प्रकाश ला सकता है। अकर्मण्य मनुष्य प्रमाद में जाकर संभावित अच्छाइयों और उपलब्धियों से वंचित हो जाता है। सिर पर हाथ रखकर बैठने से कुछ नहीं होता। सत् पुरुषार्थ करने से समस्या अपने आप समाहित हो जाती है। मनुष्य कर्म के अधीन नहीं है। कर्म उसकी अधीनता का निमित्त है। निमित्त कारण अपना प्रभाव प्रदर्शित करता है। पर निमित्त आखिर निमित्त ही होता है। वह उपादान का स्थान नहीं ले सकता। यदि मनुष्य जागृत हो तो वह निमित्त के रूप में आने वाली कर्म की अधीनता को निष्फल बना सकता है। कर्म-परिवर्तन के सिद्धांत को नहीं जानने वाले सामाजिक व्यवस्था के बदल जाने पर कर्म के सिद्धान्त में संदेह करने लग जाते हैं। कर्म व्यक्ति की आंतरिक परिस्थिति है। बाहरी परिस्थितियों और निमित्तों से उसके फलोदय में कुछ परिवर्तन हो सकता है पर उसकी वास्तविकता विनिष्ट नहीं होती। व्यक्ति में सुख-दुःख के वेदन की आन्तरिक क्षमता होती है तभी सुख-दु:ख के साधन उसकी सुख-दुःख की अनुभूति में निमित्त बन सकते हैं। केवल परिस्थितियों और निमित्तों के परिवर्तन के आधार पर व्यक्ति की समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता। उनका समाधान व्यक्ति के कर्म और कर्म को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के आधार पर ही किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy