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३८ / भगवान् महावीर
किए। पर उनका एक भी प्रयत्न सफल नहीं हुआ ।
भगवान् अपनी चर्या के अनुसार घर-घर में घूमते थे और वैसे ही खाली हाथ लौट आते थे। इस चर्या में पांच मास और पच्चीस दिन पूरे हो गए। छब्बीसवें दिन भगवान् धनावह श्रेष्ठी के घर पहुंचे। वहां एक कुमारी देहली के बीच में खड़ी थी । उसके पैर में बेड़ी डाली हुई थी । सिर मुंडित था। तीन दिन की भूखी थी। उसके पास एक सूप था । उसके कोने में उबले हुए उड़द थे। वह राजपुत्री थी । वर्तमान में वह दासी का जीवन बिता रही थी।
कुमारी ने भगवान् को देखा । उसका चेहरा खिल उठा । दुःख की घटनाएं विलीन हो गईं। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। वह मृदु स्वर में बोली-‘भंते! मेरे पास और कुछ नहीं है । ये उबले हुए उड़द हैं। आप अनुग्रह करें । मेरे हाथ से आहार लें ।' भगवान् को आते देख कुमारी को लगा कि वे आहार लेने की मुद्रा में हैं । किन्तु कुछ क्षणों में उसकी आशा निराशा में बदल गई । भगवान् आहार लिए बिना मुड़ गए। उसके चेहरे पर उदासी छा गई। आंखों से आंसू की धार बह चली। भगवान् ने जाते-जाते उसकी सिसकियां सुनीं। वे वापस मुड़े। कुमारी के हाथ से उबले हुए उड़द का आहार ले लिया ।
भगवान् के आहार लेने की बात बिजली की भांति सारी नगरी में फैल गई । 'उन्होंने धनावह की प्रताड़ित दासी के हाथ से आहार लिया' - यह चर्चा का विषय बन गया। कौन है वह दासी ? स्थान-स्थान पर यह पूछा जाने लगा | महाराज शतानीक और महारानी मृगावती ने उस दासी के भाग्य को सराहा। उसे देखने के लिए दोनों धनावह के घर पहुंचे। मृगावती ने चंदना को देख महाराज से कहा - 'यह महाराज दधिवाहन की पुत्री है। यह यहां कैसे ? यह दासी कैसे?' जैसे-जैसे बात आगे बढ़ी वैसे-वैसे लोग चंदना के मूल रूप से परिचित होते गए। लोग जैसे-जैसे चंदना के मूल रूप से परिचित होते गए वैसे-वैसे समाज-व्यवस्था को कोसने लगे। हाय! जिस समाज-व्यवस्था में राजकुमारी भी बाजार में बिक सकती है, उसमें दूसरों की क्या गति होती होगी ? दास का जीवन कितना कष्टपूर्ण होता है, उसकी स्मृतिमात्र से शरीर रोमांचित हो जाता है। अतीत की राजकुमारी और आज
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