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प्रस्ताविकम्
भगवान् महावीर व्यक्ति नहीं, सत्य हैं। उनके प्रति होने वाली निष्ठा व्यक्ति-निष्ठा नहीं, सत्य निष्ठा है । भगवान् का समग्र जीवन सत्य की शोध, उपलब्धि और अनुदान का जीवन है । साधना के इतिहास में भगवान् जैसे दीर्घ तपस्वी विरल ही मिलते हैं । काल की लम्बी अवधि ने उनकी उपलब्धियों पर आवरण-सा डाल दिया। महावीर ने अनेकान्त के उस महान् सिद्धान्त की व्याख्या की, जिसमें विश्व की समस्त विचारधाराओं के समन्वय की क्षमता है । अहिंसा और अनेकान्त के महान् प्रवक्ता के रूप में उनकी प्रतिमा तभी उभर सकती है जब हम स्वयं अहिंसा और अनेकान्त को समझें और जीवन व्यवहार में उसे क्रियान्वित करें ।
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भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण - शताब्दी का अवसर बहुत ही पुण्य अवसर है। इसका लाभ उठाकर भगवान् महावीर की काल के आवरण से ढकी हुई प्रतिमा को अनावृत करना आवश्यक है । इस अनावरण की प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए भगवान् के जीवन और सिद्धांत दोनों का मूलस्पर्शी बोध अपेक्षित है। इस लघुकाय जीवन-दर्शन में मैंने उस अपेक्षा को पूर्ण करने का प्रयत्न किया है ।
आज का युग प्रवृत्ति- बहुलता का युग है । भगवान् महावीर ने निवृत्ति का जीवन जीया था । हम लोग व्यवहार के स्तर पर सोचते हैं तब प्रवृत्ति और निवृत्ति को विभक्त कर देते हैं। भारतीय जीवन में पुरुषार्थ को प्रेरणा देने वालों में भगवान् महावीर अग्रणी हैं । निवृत्ति स्वयं पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ के बिना वह प्राप्य भी नहीं है ।
भगवान् के जीवन-दर्शन में शाश्वत और सामयिक - दोनों सत्य व्यक्त हुए हैं। आज का यथार्थवादी युग उनके द्वारा अभिव्यक्त यथार्थ की क्रियान्विति की उपयुक्त समय है। स्वतंत्रता, सापेक्षता, सहअस्तित्व, समन्वय, समत्वानुभूति जैसे तत्त्व आज जाने-अनजाने लोकप्रिय बनते जा रहे हैं । इस सहज धारा में हम एक धारा और मिलायें, जिससे वह महाप्रवाह बन
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