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गृहवास के तीस वर्ष / १५ जीवन में समाधि और सेवा का मणिकांचन योग था । उसने सूक्ष्म द्वारा स्थूल पर विजय प्राप्त की । चैतन्य के आवरण को क्षीण किया और प्रत्यक्ष ज्ञान की स्थायी योग्यता प्राप्त कर ली ।
शिशु त्रिशला के गर्भ में था । एक दिन उसने सोचा- मैं हिलता डुलता हूं, उससे माता को कष्ट होता है । मुझे किसी को कष्ट क्यों देना चाहिए? अहिंसा की धारा उसके कण-कण में प्रवाहित थी । करुणा का संचार उसमें चिरकाल से संचित था। वह जागृत हुआ और उसने हिलना-डुलना बन्द कर दिया । वह ध्यानलीन योगी की भांति स्थिर, निस्पन्द और निष्प्रकम्प हो
गया।
माता त्रिशला को अनुभव हुआ कि गर्भ स्पंदित नहीं हो रहा है । उसके मन में संदेह की एक हल्की-सी लहर उठी । थोड़े समय तक कल्पना मे डूबती- तैरती रही। फिर भी गर्भ के स्पन्दन का कोई आभास नहीं मिला। त्रिशला उदास हो गई। उसकी सहेलियों ने उदासी का कारण पूछा । त्रिशला ने अपने मन की बात उन्हें बता दी । वह बात आगे बढ़ती - बढ़ती महाराज सिद्धार्थ के पास पहुंची। महाराज को वज्रपात जैसा आघात लगा । राजा और रानी की चिन्ता ने समूचे राजकुल को चिन्तातुर बना दिया ।
नृत्य हो रहा था, गीत गाए जा रहे थे, बाजे बज रहे थे । आमोद-प्रमोद मुखर हो रहा था । किन्तु इस घटना से सब मौन हो गए । गर्भस्थ शिशु ने बाहर की ओर ध्यान दिया । उसने देखा वातावरण पूर्ण नीरव है। सबके चेहरों पर उदासी है। शिशु ने सोचा - यह क्यों? कुछ देर पहले रागरंग हो रहा था, अचानक यह विराग क्यों ? उसने ध्यान दिया और कारण स्पष्ट हो गया । उसने सोचा, यह स्थूल जगत् बड़ा विचित्र है जो कार्य हित के लिए किया जाता है वह अहित के लिए मान लिया जाता है । मैंने माता की हित-चिन्ता से हिलना-डुलना बन्द किया । मेरा वह कार्य सबके लिए कष्टकर बन गया। 'स्थूल जगत् के साथ स्थूल व्यवहार ही अच्छा है । ' यह सोच शिशु ने हिलना-डुलना शुरू कर दिया । त्रिशला को जैसे ही गर्भ के स्पन्दन का अनुभव हुआ वैसे ही उसका मुंह दमक उठा। उदासी प्रसन्नता में बदल गई। इस परिवर्तन की सूचना महाराज तक पहुंचाई गई। सारा वातावरण हर्षोत्फुल्ल हो गया। मंगल ध्वनियां पुनः मुखर हो गईं।
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