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१. भगवान् महावीर से पूर्व
श्रमण-परम्परा और भगवान् पार्श्व
द्रव्य-शून्य पर्याय और पर्याय-शून्य द्रव्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। द्रव्य इस सत्य की प्रतिध्वनि है कि अनित्य प्रतीत होने वाली दीपशिखा नित्य भी है। पर्याय इस सत्य की प्रतिध्वनि है कि नित्य प्रतीत होने वाला आकाश अनित्य भी है। स्थायित्व और परिवर्तन-ये दोनों मिलकर ही विश्व की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। नाम और रूप-ये दोनों परिवर्तनशील हैं। बहुत लोग पूछते हैं-क्या जैन धर्म अनादि है? यदि वे पूछे-क्या धर्म अनादि है, तो कहा जा सकता है कि वह अनादि है। वह वस्तु का स्वभाव है। वह न कभी बना और न कभी समाप्त होगा, इसलिए वह अनादि है। धर्म शब्द अनादि नहीं है। जैन शब्द भी अनादि नहीं है। कोई भी नाम अनादि नहीं हो सकता । जगत् में जितने भी नाम हैं वे सब आदि हैं। जैन नाम बहुत प्राचीन नहीं है। किन्तु इसे जिस परम्परा का उत्तराधिकार प्राप्त है वह बहुत प्राचीन है। जैन धर्म श्रमण धर्म का उत्तराधिकारी है। श्रमण-परम्परा भारतीय धर्म
और तत्त्व-चिन्तन की बहुत प्राचीन परम्परा है। इसका उन्नयन अर्हतों ने किया है। ऋषभ प्रथम अर्हत्-तीर्थंकर थे। उन्होंने प्रजाहित के लिए कृषि, व्यवसाय और शिल्प का प्रर्वतन किया। समाज-व्यवस्था के लिए शासन-तन्त्र की स्थापना की। आत्मिक विकास के लिए वे मुनि बनकर अर्हत् हुए। फिर उन्होंने धर्म का उपदेश दिया। वह उस समय की घटना है जब भारतीय जीवन प्रगति के प्रथम सोपान पर था। व्यक्तिगत जीवन सामाजिक जीवन के सांचे में ढल रहा था। अरण्यवास ग्रामवास में बदल रहा था। अर्हत् ऋषभ ने व्यक्ति-व्यक्ति में अर्हत् होने की अर्हता जगाई। अर्हतों की परम्परा गतिशील हो गई। उसी परम्परा में अर्हत् पार्श्व हुए। ये ऐतिहासिक पुरुष हैं। अन्य अर्हत् प्रागैतिहासिक माने जाते हैं। भगवान् पार्श्व ने सामुदायिक साधना को बहुत शक्तिशाली बनाया। अज्ञानपूर्ण ढंग से तपस्या कर शरीर
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