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देवते! बतलाओ शासन का आधार,
भिक्षुवर! कैसे तुम बन पाए अवतार। रोम-रोम में रम रहे हो, होकर एकाकार।। ...देवते!
1. अनुशासन ही बन रहा है, शासन का आधार ।
मर्यादा को शिर चढ़ाकर, बन जाता अवतार।। देवते...!
2. तेला भारिमाल का है, एक नया संसार ।
चौमासी दीपां सती की, एक नया उपहार ।। देवते...! 3. आज नहीं हैं हेम मुनिवर, प्रभु के व्याख्याकार।
जयाचार्य भी हैं नहीं, प्रभु भाष्यकार शृंगार।। देवते...! 4. आर्यवर तुलसी मुनीश्वर, भक्त हृदय के हार।
जिनकी मेधा ने दिया है, तुमको नव आकार | | देवते...! 5. मैंने समझा है तुम्हें यह, तुलसी का उपकार। ___ मेरे गुरु का मानता हूँ, पल-पल मैं आभार।। देवते...! 6. इन्द्रियवादी चौपई में, तव दर्शन साकार। ___ नव पदार्थ की चौपई में, खुला मुक्ति का द्वार ।। देवते...! 7. अनुकंपा की चौपई का, धर्म और व्यवहार।
विश्लेषण बतला रहा है, दया धर्म का सार।। देवते...! 8. कालू करुणा से जुड़ा, है मुनि पृथ्वी का तार।
(श्रद्धाभूमि से जुड़ा है भैरूं का परिवार) (श्रद्धाभूमि से जुड़ा है ईसर का परिवार)
गंगा का गंगाशहर है, पावस पा गुलजार।। देवते...! 9. जन जन में जागृत रहे नित, अणु-प्रेक्षा संस्कार। 'महाप्रज्ञ' गण में करो प्रभु, भक्ति-शक्ति संचार ।। देवते...!
लय : आपणे भागां री...!
संदर्भ : भिक्षु चरमोत्सव गंगाशहर, भादव शुक्ला 13, वि.सं. 2054
चैत्य पुरुष जग
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