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________________ इसलिए यह धन उन्हीं का है। मैं इसे नहीं ले सकता।' राजा को खबर की गई। सुनकर राजा बोला-'धरती पर मेरा स्वामित्व है, पर धरती में गड़े धन पर मेरा स्वामित्व नहीं। अतः मैं यह धन नहीं ले सकता।' कैसी विचित्र बात कि चारों में से कोई भी वह धन लेने के लिए तैयार नहीं हुआ! अतः निर्णय हुआ कि धरती का धन पुनः धरती को ही समर्पित कर दिया जाना चाहिए, और इस निर्णय के साथ ही गिन्नियों से भरा वह कलश पुनः धरती में गाड़ दिया गया। कहा जाता है कि वह सतयुग का अंतिम दिन था। अगले दिन से कलियुग प्रारंभ हो रहा था। काल-प्रभाव भी एक तत्त्व है। प्रातः सूर्योदय के साथ ही चारों व्यक्तियों के विचारों में परिवर्तन आना शुरू हो गया। राजा ने सोचा कि मैंने बहुत बड़ी गलती की। सहज रूप में प्राप्त हो रही इतनी विशाल धन-राशि छोड़ दी। खैर, कोई बात नहीं, कल प्रातः जाकर वह धन-राशि प्राप्त कर लूंगा। सेठ के मन में विचार आया कि मैं भी कैसा नासमझ हूं, जिसने द्वार पर आई लक्ष्मी को घर में प्रवेश करने से मना कर दिया। यदि कल मैं वह धन ले लेता तो आज बहुत धनाढ्य व्यक्ति होता। चलो, हुआ सो तो हुआ, पर अब मैं अवसर नहीं खोऊंगा। कल प्रातः जाकर वह सारा धन अपने कब्जे में कर लूंगा। कारीगर के दिमाग में चिंतन चला कि मैंने कितनी बड़ी भूल कर दी! मुझे इतना धन मिल रहा था, जितना शायद मैं उम्र-भर काम करके भी नहीं प्राप्त कर सकूँगा। मैंने व्यर्थ में ही ऐसा सुंदर अवसर खो दिया, पर अब भूल नहीं करूंगा। कल प्रातः ही गाड़े गए स्थान से कलश निकालकर सारा धन हस्तगत कर लूंगा। मजदूर ने भी विचारा कि मुझजैसा बुद्धिहीन व्यक्ति संसार में दूसरा कोई नहीं हो सकता। अनायास ही मुझे इतना धन प्राप्त हुआ था कि जिससे सदा-सदा के लिए मुझे इस कठिन मजदूरी से छुटकारा मिल जाता, बल्कि मेरी कई पीढ़ियों तक भी वह नहीं खूटता, पर मैंने उसे लिया नहीं।......"अब भी मुझे अपनी भूल सुधारनी चाहिए। कल प्रातः ही जाकर उसे ले लेना चाहिए। कैसा संयोग कि दूसरे दिन प्रातः चारों ही व्यक्ति वह धन लेने के लिए एक ही समय उस स्थान पर पहुंचे, जहां पर कि वह गाड़ा गया था। पर आश्चर्य, जमीन खोदकर वह कलश संभाला गया तो उसके भीतर भरी सारी गिन्नियां कंकरों में रूपांतरित हुई मिलीं। .७४ - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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