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वर्तमान के विध्वंस की तो बात ही क्या, सुदूर भविष्य तक उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे। कई पीढ़ियों तक उसका असर रहेगा। लोगों को नाना प्रकार की व्याधियों, अंगहीनता आदि के रूप में उसका त्रास झेलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। बड़े मजे की बात यह है कि वे अपनी सत्तालिप्सा या राज्याकांक्षा पर परदा डालते हुए उद्घोषणा यह करते हैं कि हम अस्त्र-शस्त्र तथा अणुबम व उद्जनबम शांति के लिए निर्मित कर रहे हैं! मैं उनसे कहना चाहता हूं कि यदि वास्तव में ही उनके मन में शांति की अभीप्सा है तो वे अहिंसा के राजमार्ग पर आएं। शस्त्रास्त्र शांति के साधन नहीं हैं, वे तो शांति को दूर से दूर करनेवाले हैं, परोक्ष रूप से हिंसा और युद्ध को ही निमंत्रण देनेवाले हैं। दो महायुद्धों का परिणाम संसार देख चुका है। यह बात बहुत स्पष्ट हो चुकी है कि हिंसा
और युद्ध किसी समस्या के स्थायी समाधान नहीं है। मनुष्य-जाति को यदि सुख से जीना है तो उसे हिंसा और युद्ध का मार्ग छोड़कर अहिंसा का मार्ग स्वीकार करना होगा, सह-अस्तित्व और मैत्री की बातें अपनानी होंगी। ध्यान रहे, अनाक्रमण, सह-अस्तित्व और मैत्री अहिंसा के ही अंग-प्रत्यंग हैं।
भारतवर्ष सदा से अहिंसा का समर्थक रहा है। आज भी वह अनाक्रमण का सिद्धांत मान्य कर चलता है। पं. नेहरू द्वारा प्रचारित 'पंचशील' में भी एक शील है-'परस्पर अनाक्रमण का आवश्वासन।' यह अनाक्रमण की बात, जैसा कि मैंने अभी कहा, अहिंसा का ही हिस्सा है, उसकी ही प्रतिध्वनि है। इसलिए संसार विश्व-शांति के लिए भारत की ओर आशा-भरी नजर से देख रहा है। भारत की वर्तमान स्थिति
दूसरी ओर भारत की आंतरिक स्थिति अच्छी नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि चिंताजनक है। राष्ट्रीय चरित्र में असामान्य गिरावट आई है। स्वार्थ-साधना जोरों-से चल रही है। कर्तव्य-बुद्धि का ह्रास हो रहा है। राजनीति का क्षेत्र भ्रष्टाचार का क्षेत्र बनता जा रहा है। ऐसीसी ही स्थिति व्यापार-क्षेत्र की है। गंभीर स्थिति यह है कि लोगों का राष्ट्र की प्रतिष्ठा की ओर कोई ध्यान नहीं है। उनका ध्यान अपनी हानि और लाभ पर है, अपना घर भरने पर है।
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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