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वह जाति, वर्ण, वर्ग, संप्रदाय, भाषा आदि सभी प्रकार की संकीर्णताओं से सर्वथा मुक्त है | साधु-संत धर्म के जीवंत प्रतीक होते हैं, वे स्वयं धर्म की आराधना करते हैं और जन-जन को इसकी आराधना करने की प्रेरणा देते हैं, पर आज तो स्थिति कुछ दूसरी ही नजर आती है । साधु-संत धर्म के स्थान पर धन-संपत्ति के आराधक बन रहे हैं। उन पर सांप्रदायिकता प्रभावी हो रही है। वे जातिवाद, वर्णवाद - जैसे संकीर्ण तत्त्वों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसकी दुष्परिणति यह है कि धर्म का मौलिक और व्यापक स्वरूप जनता के सामने नहीं आ पा रहा है। ऐसी स्थिति में आज एक ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो सार्वजनीन हो, सभी लोग जिसका बिना किसी भेद-भाव और संकीर्ण सीमा के आचरण कर सकें। वह धर्म मानवधर्म हो सकता है। अणुव्रत आंदोलन अपने मौलिक स्वरूप में मानव-धर्म ही है। उसमें किसी कोटि की कोई संकीर्णता को बिलकुल स्थान नहीं है। जीवन-शुद्धि में विश्वास करनेवाला कोई भी व्यक्ति, भले वह किसी जाति, वर्ण, वर्ग, संप्रदाय से संबद्ध क्यों न हो, उसके साथ जुड़ सकता है, उसकी आचार-संहिता स्वीकार कर अपने जीवन को सही दिशा दे सकता
है।
बोलपुर
२१ फरवरी १९५९
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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