SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७ : धर्म का सार्वजनीन रूप प्रकट हो भारतीय संस्कृति के प्राण-तत्त्व समाज में दो तरह के लोग होते हैं आदर्श को जीनेवाले तथा आदर्श की दिशा में यथाशक्य गति करने का प्रयास करनेवाले। साधु-संत आदर्श को जीनेवाले होते हैं। वे महाव्रती होते हैं, सर्वत्यागी होते हैं, पूर्ण संयम के आराधक होते हैं। समाज में उनका सम्मान होता है, बहुमान होता है। गहराई से देखा जाए तो उनका यह सम्मान-बहुमान, त्याग और संयम का सम्मान-बहुमान है। त्याग और संयम भारतीय संस्कृति के प्राण-तत्त्व हैं। इन्हें इस संस्कृति में सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। धन को वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है। उसे मात्र जीवन चलाने का साधन माना गया है, साध्य नहीं, पर दुर्भाग्य से आज वही धन-वैभव साध्य बन रहा है। ऐसा लगता है कि लोग उसकी आराधना में ही जीवन की सार्थकता देखते हैं। और तो क्या, देवी-देवताओं और साधु-संतों की उपासना भी इसलिए की जाती है कि उससे धन-संपत्ति मिले, ऐश्वर्य मिले। कहना चाहिए कि उपासना साधना नहीं रही, स्वार्थ बन गई है। जो उपासना जीवन-शुद्धि के लिए होनी चाहिए, वह आज स्वार्थ सिद्धि के लिए हो रही है। यह मानवीय दृष्टिकोण का बहुत बड़ा विपर्यास है। इस विपर्यास के कारण अनेक प्रकार की विकृतियां पैदा हुई हैं, मानव अधःपतन के गहरे गर्त की ओर बढ़ रहा है। यदि अधःपतन के गर्त में गिरने से बचना है तो उसे अपनी दिशा बदलनी होगी, दृष्टिकोण बदलना होगा। धन-वैभव की आराधना छोड़कर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में लगना होगा, आत्मा की आराधना में लगना होगा। धर्म का मौलिक स्वरूप धर्म क्या है? ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना का नाम ही तो धर्म है, आत्माराधना ही तो धर्म है। धर्म जीवन-शुद्धि का एकमात्र मार्ग है। धर्म का सार्वजनीन स्वरूप प्रकट हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy