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________________ स्वस्थता का लक्षण है । स्वस्थ बनने के लिए ही साधक संकल्प करता है - असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि - असंयम का परित्याग कर संयम के पथ पर चलूंगा । प्राकृतिक चिकित्सा रोग के प्रतिकार की प्रक्रिया का नाम चिकित्सा है। प्राकृतिक चिकित्सा की भी अपनी एक स्वतंत्र पद्धति है। मिट्टी, पानी, उपवास आदि से चिकित्सा करना और खाद्य वस्तुओं में संयम रखना। यह एक सरल और सुगम चिकित्सा पद्धति है । साधुओं के लिए भी यह अनुकूल है, पर इस चिकित्सा पद्धति की एक-दो बातें चिंतन मांगती हैं १. दवा का ऐकांतिक निषेध । २. फलों के रस का अत्यधिक व्यय । प्राकृतिक औषधियों का निषेध भी अनावश्यक प्रतीत होता है। कहा गया है हरीतकी मनुष्याणां, मातेव हितकारिणी । कदाचित् कुप्यते माता, न जातुचिद् हरीतकी ॥ हरड़ कभी हानिप्रद नहीं है, प्राकृतिक वस्तु है। बावजूद इसके, मात्र औषध के रूप में काम आने के कारण उसका निषेध हो, तब क्या अन्न भी औषध नहीं है ? उसका सेवन क्यों होता है ? आगमों में साधुओं के लिए ग्राह्य चौदह वस्तुएं बताई गई हैं। उनमें औषध और भेषज को भी सम्मिलित किया गया है। कई लोग दवा का अतिरेक करते हैं। बारह ही महीने दवा के आधार पर ही रहते हैं। निद्रा के लिए भी गोली तथा इंजेक्शन लेते हैं। यह भी अच्छा नहीं। दर्शन-ग्रंथों में न्याय यष्टिवत होता है, वैसे ही औषधि का भी कदाचित आवश्यकतावश प्रयोग किया जाता है। अतिभाव और अभाव दोनों ही ऐकांतिक हैं। साधारणतया मध्यम मार्ग है- अल्प भाव । जन-साधारण और साधु-संतों के लिए फलों के रस पर रहना कठिन-सा है, क्योंकि उन्हें यह सहज उपलब्ध नहीं हो सकता। इस ओर ध्यान न दिए जाने के कारण आज यह चिकित्सा जन साधारण की चिकित्सा न रहकर अमीरों की चिकित्सा बन गई है। यदि सहज प्राप्य सामग्री के आधार पर इसे विकसित किया जाता तो संभवतः यह अधिक व्यापक और उपयोगी बन पाती। अपेक्षा है, इस संदर्भ में अब भी गंभीरता से चिंतन किया जाए। जसीडीह, २० जनवरी अणुव्रत आंदोलन: चारित्रिक रोगों की प्राकृतिक चिकित्सा Jain Education International For Private & Personal Use Only ४९ • www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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