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________________ मैंने उसकी बात सुनी अवश्य, पर मुझे जंची नहीं। मैंने कहा'हम पूर्व-निश्चित मार्ग से ही जाएंगे, भले वह दुर्गम क्यों न बन गया हो। वर्षा हमारी परीक्षा ले रही है तो भले ले, पर हम प्रकृति के पुजारी हैं, पीछे नहीं हटेंगे। परीक्षा के समय कष्ट देखकर घबराना कायरता है।' प्रकृति-कच्चे मार्ग पर हम चल पड़े। विकृति से वापस प्रकृति में आने में जोर पड़ता है। पैर फिसलने लगे। बूंदा-बूंदी भी होने लगी। कई बार बूंदों ने उग्र रूप धारण किया, पथ रोकने का प्रयास किया, मार्ग को कीचड़मय बना दिया, फिर भी हमारे मानस में खेद की जरा भी संवेदना नहीं उभरी। एक-एक पैर संभालकर रखते हुए हम प्रसन्नतापूर्वक गंतव्य स्थान पर पहुंच गए। कई बार वर्षा के कारण झोंपड़ियों में रुकने से सुरक्षित रहे, विशेष भीगे नहीं। ऐसा लगा, यदि हम विकृत मार्ग-सड़क से जाते तो भीग जाते। कारण यह कि मार्ग में बस्ती नहीं थी, जंगल-ही-जंगल था। पूर्व भावना को बल मिला कि मनुष्य को प्रकृति में ही रमण करना चाहिए, चाहे कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े। __आज प्रकृति से विकृति में आकर मनुष्य अपना मूल स्वरूप भूल रहा है। वह शोषण, नीतिभ्रष्टता, संग्रह, मिलावट आदि विकृतियों में रचपच रहा है। अणुव्रत-आंदोलन उसे वापस प्रकृति में लाने का एक प्रयत्न है। दवा रोग का शमन करने का एक साधन है, पर आज उसमें भी विकृति-मिलावट हो गई है। इस विकृति-रोग को मिटाने के लिए किसी दवा का प्रयोग नहीं करना होगा। केवल विकृति हटाने की जरूरत है। विकृति का आवरण हटा कि प्रकृति शेष रह जाएगी। मिट्टी दूर करने से स्वर्ण स्वयं मूल रूप में आ जाएगा। ___ स्वास्थ्य शब्द का अर्थ अपनी शब्द-रचना में निहित है। अपने स्वरूप में रहनेवाला स्वस्थ होता है। स्वत्व से परत्व में जाना विकृति है। संपूर्ण विकृति न मिटे, तब तक व्यक्ति स्वस्थ नहीं कहलाता। अपने असंयम से मनुष्य रोग का शिकार बनता है और विवश होकर उसे परिणाम भी भोगना पड़ता है। भूलों का सुधार किए बिना वह स्वस्थ नहीं बनता। स्वास्थ्य के लिए वर्तमान की भूलों के सुधार के साथ-साथ भविष्य में उन्हें पुनः न करने का संकल्प भी आवश्यक है। अतीत का प्रायश्चित्त और भविष्य में वैसा न करने का संकल्प ही .४८८ - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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