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________________ उपस्थित होते तो कितनी प्रसन्नता की बात होती! मंत्री मुनि के मन में यह आता रहा होगा कि आचार्यश्री किधर पधारेंगे, कहां पधारेंगे, पर मेरा मन कहता है कि अब उनका चित्त भी हर्ष से प्रफुल्लित होगा। जैसाकि मैं सुनता हूं, वे कहते हैं कि आचार्यप्रवर को उधर पधारना ही चाहिए। मुझे स्मरण है, जब मैंने राजस्थान से यात्रा के लिए प्रस्थान किया, तब मातुश्री वदनाजी ने कितने उल्लास के साथ मुझे विदा दी थी! उन्होंने कहा था कि आप सुखपूर्वक यात्रा करें। दोनों वृद्ध हैं और मंत्री मुनि तो अस्वस्थ भी हैं। इस स्थिति में मेरा यह कर्तव्य होता है कि उनके संयम-जीवन में विशेष सहाय्य दूं, पर उन्होंने मुझे कभी रोकने का प्रयत्न नहीं किया, बल्कि यात्रा के प्रति बहुत-बहुत मंगल भावना व्यक्त की। आज के दिन मैं अपने सभी साधु-साध्वियों को भी स्मरण करता हूं। मैं सुदूर प्रदेशों की यात्रा पर हूं। वे यहां से बहुत दूर-दूर हैं, पर यह दूरी मात्र शरीर के स्तर पर है। आत्मा के स्तर पर तो वे सब मेरे सन्निकट ही हैं। हों भी कैसे नहीं ? वे अपना एकमात्र आधार और सर्वस्व आचार्य और गुरु को मानते हैं। मैंने प्रस्थान से पूर्व साधुसाध्वियों से यात्रा के संदर्भ में पूछा था। यह इसलिए कि संघपति और उनका परस्पर आत्मा और शरीर-जैसा अभिन्न संबंध है। मेरे पूछने पर उन्होंने बड़े उल्लसित मन से कहा था-'आपकी यात्रा हो। वह सुखद हो, सफल हो।' आह्लाद एवं तोष का विषय मेरे लिए यह अत्यंत आनंद का विषय है कि हमारे धर्म-शासन द्वारा मानव-जाति की उल्लेखनीय सेवा हो रही है। यह भी मेरे लिए कम तोष की बात नहीं है कि मन और वाणी-सहित मेरा शरीर शासन-सेवा एवं जन-जागरण के पुनीत कार्य में लग रहा है। यदि यह समूचा भी काम आ जाए तो भी किंचित भी चिंता नहीं है, बल्कि परम प्रसन्नता का विषय है। इन दोनों कार्यों में संलग्न रहते हुए मुझे न भूख सताती है और न नींद ही। मुझे विश्वास है, यह प्रयत्न धर्मशासन के अभ्युदय तथा मानव-जाति के आध्यात्मिक एवं धार्मिक उत्कर्ष का हेतु बनेगा। अविस्मरणीय दृश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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