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१८ : अविस्मरणीय दृश्य
वह दिन
सुजानगढ़ की उस दिन की घटना साधु-साध्वियां भूले नहीं होंगे। मेरा चौवालीसवां जन्म-दिन था। न जाने क्यों मेरे मन में एक अद्भुत हर्ष उमड़ रहा था। मुझे याद है, उस दिन मैंने अपने हाथ से सभी साध्वियों को कुछ-न-कुछ अवश्य दिया था। उस दिन मेरे मन में विचार आया-साहित्य-साधना का विशाल कार्य मेरे सामने है। दूसरा विचार रह-रह कर उठ रहा था कि मैं यात्रा करूं, पर इसके साथ ही यह प्रश्नचिह्न भी उभर रहा था कि यह कैसे संभव है। साहित्य-साधना का महत्त्व मैं अच्छी तरह से महसूस कर रहा था, पर साथ ही यात्रा का महत्त्व भी कुछ कम नजर नहीं आ रहा था। मुझे यह कहने में भी कोई कठिनाई नहीं कि इसके लिए मुझे एक अज्ञात प्रेरणा मिल रही थी। कोई कल्पना नहीं थी कि उत्तरप्रदेश की यात्रा इतनी शीघ्र हो सकेगी। दूसरों की तो बात ही क्या, मैं स्वयं भी ऐसी कल्पना नहीं कर सकता था, किंतु सहसा एक स्फुरणा मिली। आगे चलकर इसका व्यवस्थित कार्यक्रम बना। यात्रा की बात सुन-जानकर लोगों के मन बांसों उछल पड़े।
उत्तरप्रदेश और फिर आगे बिहार आकर हमने पाया कि यात्रा के द्वारा जन-जन में एक नवीन ज्योति और जाग्रति पैदा हो रही है। सर्वधर्म-समन्वय, साहित्य:साधना एवं उसके प्रसार का कार्य भी जनजागरण के साथ-साथ हो रहा है। हमने साक्षात देखा-बनारस, पटना, नालंदा आदि के अल्पकालीन प्रवास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ। राजगृह का कार्य तो आशातीत ही रहा है। पत्रकार कहते हैं कि वर्षों में इस ढंग का यह पहला कार्यक्रम है। यात्रा की मंगल कामना आज यहां मंत्री मुनि श्री मगनलालजी स्वामी तथा मातुश्री वदनाजी
---- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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