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छोड़कर केवल वह बाण निकाल दिया जाना चाहिए, पर महावीर का चिंतन इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि दुःख का बहिर्रूप तो तत्काल मिटा देना अपेक्षित है ही, साथ ही यदि उसका मूल नहीं मिटाया गया तो न जाने वह बहिरूप पुनः कब उभर आए। इसी लिए उन्होंने अग्र
और मूल दोनों के छेदन की बात कही। अनासक्त भाव जागे
भगवान महावीर की यह बात इतनी सुबोध है कि हर-कोई बहुत आसानी से समझ सकता है, पर कैसी बात है कि लोग सुनते हैं, समझते हैं और ऐसा कहते भी हैं, किंतु इसे जीवन में उतारने की तैयारी नहीं दिखाते! दूसरे शब्दों में वे अपने को ज्यों-का-त्यों रखना चाहते हैं। वे दिखावा तो बढ़-चढ़कर करते हैं, पर पाप से भय नहीं खाते। इस कोटि के लोग मिथ्यादृष्टि हैं। सम्यग्दृष्टि वह है, जिसके अंतःकरण में पाप का भय हो। ऐसा व्यक्ति निर्लेप-भाव से अपना जीवन-व्यवहार चलाता है। आप जानते हैं कि धाय माता बच्चे का लालन-पोषण करती है, तथापि उसका बच्चे के प्रति मां-जैसा ममत्व नहीं होता। वह सदा इस भाषा में सोचती है कि बच्चा मेरा नहीं है। ठीक इसी प्रकार अपने पारिवारिक और सामाजिक कार्य करता हुआ सम्यग्दृष्टि व्यक्ति उनमें आसक्त नहीं होता। वह उनसे निर्लिप्त रहता है। यह निःस्पृह और अनासक्त वृत्ति व्यक्ति को आत्म-सुख की अनुभूति कराने में बहुत सहयोगी होती है। आशा है, क्या व्यापारी और क्या अन्य वर्ग के लोग सभी इस पर गंभीरता से चिंतन करेंगे और अपना जीवन सही दिशा में मोड़ने के लिए प्रेरित होंगे।
राजगृह १८ जनवरी १९५९
आत्म-सुख की प्राप्ति का मार्ग
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