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बाधक न बने, उसे न छीने, यह उसके हाथ की बात है, और यह उसका सबसे बड़ा धर्म है, बल्कि प्राणिमात्र का धर्म है। महावीर की इस वाणी के व्यापक प्रचार-प्रसार के गर्भ में मैं संसार का बहुत बड़ा हित देख रहा हूं, पर मुझे सखेद कहना पड़ता है कि महावीर की इस वाणी के समुचित प्रचार का स्वरूप देखने में नहीं आ रहा है। लोग समझते हैं कि जैन-धर्म वैश्यों का धर्म है। मुझे यह देख-सुनकर आंतरिक पीड़ा होती है। मेरे मन में विचार आता है कि लोग यह तथ्य क्यों भूल रहे हैं कि महापुरुष सार्वजनीन होते हैं। वे तथा उनके आदर्श व विचार किसी कठघरे में नहीं बंधते, किसी बड़ी-से-बड़ी सीमा में नहीं समाते। पर दोष किसे दिया जाए? जैनों ने स्वयं भी तो महावीर-वाणी की गहराई और व्यापकता नहीं समझी है। ऐसी स्थिति में दूसरों को उसके रूप का दर्शन करा भी तो कैसे सकते हैं? अपेक्षा है, जैन लोग स्वयं संकीर्णता से मुक्त बनें और महावीरवाणी को संकीर्णता के घेरे से बाहर निकालकर सही रूप में विश्व के समक्ष रखें, उसके व्यापक स्वरूप से जन-जन को परिचित कराएं। मैं मानता हूं, यह महावीर के प्रति उनकी सच्ची भक्ति और श्रद्धाभिव्यक्ति होगी, जैन-शासन की महान सेवा होगी। संसार की अमूल्य निधि ____ मैं आज नालंदा के पुस्तकालय में गया था। वहां मैंने विश्व की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में बौद्ध-साहित्य देखा। संसार के कुछ देश मूल त्रिपिटक मान्य करते हैं तो कुछ देश उत्तरवर्ती साहित्य। बावजूद इसके, उनमें परस्पर टकराहट-जैसी कोई बात नहीं है। जैन-परंपरा में भी एक वर्ग मूल प्राकृत वाङ्मय में विश्वास करता है तो दूसरा वर्ग उत्तरवर्ती साहित्य में, पर इस बात पर जैन लोगों का परस्पर उलझना, विवाद में पड़ना कहां तक उचित है? जरूरत तो इस बात की है कि वे संगठित रूप में जैनसंस्कृति और जैन-वाङ्मय जन-जन तक पहुंचाने लिए प्रयत्न करें, ताकि संसार उनसे लाभान्वित हो सके। मैं मानता हूं, जैन-संस्कृति जीवन-विकास की अजस्र धारा है, जैन वाङ्मय विश्व की एक अमूल्य निधि है। वह अत्यंत सौभाग्य का दिन होगा, जिस दिन जैन-संस्कृति और जैन-वाङ्मय सही रूप में संसार के समक्ष आएगा। उस सौभाग्य-दिवस की मैं आतुरता से प्रतीक्षा में हूं। आशा करता हूं, जैन लोग अपने संयुक्त उत्तरदायित्व के प्रति गंभीर बनेंगे। जैन-संस्कृति समारोह की आयोजना की पृष्ठभूमि में यही भावना रही
राजगृह, १७ जनवरी १९५९
जैनों का संयुक्त उत्तरदायित्व
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