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निभाता हुआ व्यक्ति इस धर्म की आराधना कर सकता है। इसे निभाने में उसके समक्ष कोई अड़चन नहीं आती। आप देखें, भगवान महावीर के अनुयायी श्रावकों में राजा, मंत्री, सेनापति, कोट्याधीश श्रेष्ठि आदि सभी प्रकार के लोग थे। भगवान का प्रमुख श्रावक आनंद बहुत संपन्न व्यक्ति था। दूसरी-दूसरी संपन्नताओं की बात तो अलग है, उसके दस तो गोकुल थे; और प्रत्येक गोकुल में चालीस हजार गाएं थीं। इससे स्पष्ट है कि महावीर का धर्म उत्कृष्ट तपस्वियों का ही नहीं अपितु जन-साधारण का भी था, पर यह हम लोगों की भूल रही कि हम इस धर्म का संदेश जनजन तक नहीं पहुंचा सके। इस भूल का ही परिणाम है कि जन-साधारण इससे अपरिचित-सा रहा। यह अपरिचय 'महावीर का धर्म अत्यंत कठिन है, उत्कृष्ट तपस्या है' जैसी अवधारणा के बनने का कारण बना। उसके फलस्वरूप जन-साधारण इससे विरत-सा रहा। हमें अपनी इस भूल का तीव्रता से अनुभव हुआ है, इसलिए इसका परिर्माजन कर जन-जन तक महावीर का अगार धर्म पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। युगीन संदर्भो में हमने इसे अणुव्रत-आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया है। मैं मानता हूं, महावीर के इस धर्म का, धर्म-संदेश का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ तो लोगों की गलत अवधारणा टूटेगी और उसके प्रति एक आकर्षण का भाव पैदा होगा। जरूरी है सर्वधर्म-सद्भाव
धार्मिक लोगों को एक बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। धर्म के प्रवर्तकों/प्रवक्ताओं की विभिन्नता के कारण अनेक धर्मपंथ और संप्रदाय हमारे सामने हैं। उनमें अनेक बातों में मतैक्य है तो कुछ बातों में विभेद भी है, पर यह विभेद पारस्परिक संघर्ष का कारण नहीं बनना चाहिए। मतभेद कब नहीं था ? अतीत में सदा मतभेद रहा है। भविष्य में भी यह सर्वथा समाप्त हो जाएगा, यह संभव प्रतीत नहीं होता। ऐसी स्थिति में समाधायक बिंदु यही है कि हम सौहार्द के साथ अनाग्रही दृष्टिकोण से एक-दूसरे के विचार समझने-समझाने का प्रयत्न करें। इसके उपरांत भी जो विचार-भेद शेष रह जाए, उसे विचार-भेद तक ही सीमित रहने दें, मन-भेद न बनाएं। उसके प्रति सहिष्णु रहें। उसके कारण परस्पर कोई विवाद या संघर्ष न करें, एक-दूसरे को काटने का प्रयत्न न करें। विभिन्न जैन-संप्रदायों के पारस्परिक सौहार्द की दृष्टि से मैंने पांच सूत्र सुझाए थे। मैं समझता हूं, वे पांचों सूत्र सभी धर्म-संप्रदायों को अपनाने
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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