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१४ : धर्म का स्वरूप
धर्म क्यों
भगवान महावीर धर्म के एक महान प्रवक्ता थे। धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि मानव-जीवन का परम लक्ष्य आत्म-परिमार्जन है; और आत्म-परिमार्जन का जो साधन है, वह धर्म है। इसलिए धर्म का आचरण आत्म-शुद्धि के लिए ही करना चाहिए। ऐहिक सुख और स्वर्गीय भोगों की प्राप्ति उसका उद्देश्य नहीं होना चाहिए।
धर्म का स्वरूप बताते हुए उन्होंने कहा कि धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। वह किसी वर्ग, वर्ण और जातिविशेष के लिए नहीं, अपितु मानवमात्र के लिए है, प्राणिमात्र के लिए है। जो भी प्राणी उसकी आराधना करता है, उसके लिए वह पवित्रता और सुख-शांति का आधार बनता है।
उनके द्वारा प्ररूपित इस धर्म के साथ कोई भी संकीर्ण विशेषण नहीं जोड़ा जा सकता। विशेषण जोड़ना ही चाहें तो अध्यात्म, अहिंसाजैसे व्यापक विशेषण ही जोड़े जा सकते हैं। ऐसे व्यापक धर्म के प्रचारप्रसार के माध्यम से उन्होंने जन-जन के अभ्युदय का प्रयत्न किया। धर्म के दो रूप
भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म के संदर्भ में लोगों के मन में एक आम अवधारणा है कि वह अत्यंत कठिन है, उत्कृष्ट तपस्या का पथ है। इस संदर्भ में समझने की बात यह है कि महावीर ने दो तरह के धर्म का प्रतिपादन किया है-अणगार धर्म और अगार धर्म। अणगार धर्म उत्कृष्ट तपस्या का रूप है, पर उसका विधान मात्र गृहत्यागी साधुसाध्वियों के लिए है। गृहस्थों के लिए उसका विधान नहीं है। उनके लिए अगार धर्म है। यह एक प्रकार से मध्यम-मार्ग का संदेश है। अपने गृहस्थ जीवन की विभिन्न जिम्मेदारियां और कर्तव्य अच्छी तरह से
धर्म का स्वरूप
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