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चले। हम भी बाल-बच्चेदार हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या व्यापारी आदि दूसरे-दूसरे वर्गों के लोग बाल-बच्चेदार नहीं हैं, उनके घर-परिवार नहीं है, फिर वे उन्हें दोष क्यों देते हैं, बाजार से मिलावटी समान मिलने पर व्यापारियों को क्यों कोसते हैं, उनमें व्याप्त बुराइयों की चर्चा क्यों करते हैं। सुधार की प्रक्रिया यह है कि हर व्यक्ति, हर वर्ग स्वयं को टटोले, स्वयं के दोष देखे, दूसरों के नहीं। जब तक यह दृष्टि नहीं बनती है, तब तक समाज स्वस्थ नहीं बन सकता। वास्तविक जीवन
__ मैं मानता हूं, अनाचरणीय प्रवृत्तियों के मूल में व्यक्ति की निरंकुश भोगवृत्ति है। इसलिए अपेक्षित है कि व्यक्ति संयम और सादगी अपनाए, अपनी आवश्यकताएं कम करना सीखे। इससे उसका जीवन सहज रूप से सदाचारमय बना रहेगा। ध्यान रहे, सदाचारमय जीवन ही वास्तविक जीवन है। सच्चा सुख इसी जीवन में प्राप्त होता है।
कलेक्टरी, पटना ९ जनवरी १९५९
जीवन की सार्थकता
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