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________________ गहरा पतन है। असत्य, अप्रामाणिकता, चोरी, अनैतिकता आदि बातें निश्चय ही बुरी हैं, पर सत्य, प्रामाणिकता नैतिकता के प्रति अनास्थाशील होना उनसे भी अधिक बुरी बात है, भयंकर बुरी बात है। एक व्यक्ति भले आज असत्य, बेईमानी, अप्रामाणिकता, चोरी-जैसी बुराइयों से आक्रांत है, पर वह यदि सत्य, प्रामाणिकता, ईमानदारी, सदाचार आदि के प्रति आस्थाशील है तो देर-सवेर उसके इन बुराइयों से छूटने की प्रबल संभावना है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सत्य, प्रामाणिकता, नैतिकता, सदाचार आदि के प्रति अनास्थाशील है, वह असत्य, अनैतिकता, अप्रामाणिकता, चोरी-जैसी बुराइयां कैसे छोड़ेगा? मजबूरी न होने के बावजूद वह उनसे उपरत होने की चेष्टा नहीं करेगा। इसी लिए मैंने कहा कि सत्य, प्रामाणिकता, नैतिकता आदि के प्रति अनास्थाशील होना असत्य, अप्रामाणिकता, चोरी आदि से भी अधिक बुरी बात है। दुर्लभता के क्रम में अंतिम बात संयम में पराक्रम करने की है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। व्यक्ति सम्यक तत्त्व के बारे में सुनता है, पर मैं नहीं समझता कि उस श्रवण की उसके लिए क्या कीमत है, जब वह उस पर आस्था करता हुआ भी उसका आचरण नहीं करता। व्यक्ति सम्यक देखता है, पर मैं नहीं समझता कि उस देखने का क्या मूल्य है, जब वह उसके अनुरूप अपना जीवन नहीं ढालता। कहने का तात्पर्य यह कि सम्यक तत्त्व की प्राप्ति तभी पूरी सार्थक होती है, जब व्यक्ति उस पर घनीभूत आस्था करता हुआ उसके अनुसार जीवन जिए। सुधार की प्रक्रिया आज आचरण के क्षेत्र में एक बड़ा-सा शून्य नजर आ रहा है। बुराइयों का इतना व्यापक फैलाव हुआ है कि समाज का कोई भी वर्ग इनसे सर्वथा अस्पृष्ट नहीं है। यहां तक कि शासकीय वर्ग भी इनसे बचा हुआ नहीं है। पक्षपात, अधिकार का दुरुपयोग-जैसी अनेक अनाचरणीय प्रवृत्तियों का वह अड्डा-सा बना हुआ है। रिश्वत की दुष्प्रवृत्ति तो इतनी अधिक है कि इसके बिना सरकारी महकमों में कोई काम हो सकता है, इस बात से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। जब सरकारी अफसरों और कर्मचारियों से इस संदर्भ में कुछ कहा जाता है तो उनका प्रायः इस आशय का उत्तर मिलता है कि रिश्वत न लें तो हमारा काम कैसे .२४ - ज्योति जले : मुक्ति मिले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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