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८ : आत्म-चिकित्सक बनें
मैं एक जैन-मुनि हूं, पदयात्री हूं। पदयात्रा मेरा जीवन-व्रत है। राजस्थान से पदयात्रा करता हुआ आज इस मेडिकल कॉलेज में छात्रों एवं प्राध्यापकों के बीच पहुंचा हूं। क्यों आया हूं? क्या कुछ देने के लिए? क्या कुछ लेने के लिए? न मैं केवल देने के लिए आया है और न केवल लेने के लिए ही, बल्कि देने एवं लेने दोनों के लिए आया हूं;
और यह केवल यहां की बात नहीं है, अपितु जहां भी जाता हूं, वहां यही क्रम रहता है। मैं क्या देता हूं? देने के लिए मुझ अकिंचन के पास मात्र एक चीज है-जीवन-शुद्धि और आत्म-जागरण का संदेश। यह तत्त्व मैं सर्वत्र उन्मुक्त भाव से बांटता हूं। मेरी भावना और प्रयास है कि यह संदेश अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुंचे। अब रही लेने की बात। जैसा कि मैंने अभी कहा, मैं अकिंचन हूं, गृहत्यागी हूं। मुझे सोना-चांदी नहीं चाहिए, रुपयों की भेंट भी मुझे नहीं चाहिए। फिर मुझे क्या चाहिए ? मुझे चाहिए आपकी बुराइयों की भेंट। प्यारी-प्यारी बुराइयों की भेंट। आप यह भेंट मुझे दें। इसमें मजे की बात यह है कि मेरे पास वे बुराइयां किंचित भी प्रश्रय नहीं पाएंगी, बल्कि भस्मसात हो जाएंगी और आपको उनसे मुक्ति मिल जाएगी। मैं देख रहा हूं कि आज असत्य, हिंसा, प्रतिहिंसा, अनुशासनहीनता, विश्वासघात-जैसी अनेक बुराइयां मानवसमाज में व्याप्त हैं। इस कारण समाज का ढांचा जर्जरित हो रहा है। समाज का एक भी वर्ग इनसे अछूता नहीं है। यहां तक कि विद्यार्थी एवं अध्यापक भी इनकी गिरफ्त से बचे हुए नहीं हैं। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जब तक इन बुराइयों से छुटकारा नहीं होगा, तब तक जीवन-विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा। अनुपेक्षणीय है आंतरिक स्वस्थता
यह बहुत स्पष्ट है कि यहां शारीरिक बीमारियों की चिकित्सा का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त होता है। इस शिक्षण-प्रशिक्षण का अपना उपयोग
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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