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है, उसे सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। (१७२) • भय हिंसा का जनक है। इसलिए भयाकुल प्राणी कभी अहिंसक नहीं बन
सकता। अहिंसक बनने के लिए अभय बनना आवश्यक है। (१८०) • मनुष्य का आध्यात्मिक व नैतिक विकास ही वास्तविक विज्ञान है।
(१८७) • पवित्र-से-पवित्र कार्य व्यवसाय-बुद्धि का रंग पाकर दूषित हो जाता है।
(१९१) • चिंता समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि किसी
समस्या का समाधान नहीं है। (१९९) विचार-भेद के कारण परस्पर लड़ना-झगड़ना धार्मिकता की दृष्टि से तो सर्वथा अशोभनीय है ही, मानवता की दृष्टि से भी अनुचित है। (२०६) • जहां चरित्र-बल नहीं है, वहां क्लीवता है। (२१०) • सुधार कानून के द्वारा थोपा नहीं जा सकता। वह हृदय-परिवर्तन से ही
आ सकता है। (२११) • संयम बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। उसके अभाव में जीवन जीवन नहीं
होता; समाज स्वस्थ नहीं बनता। (२१५) • संयम-आधारित समाज ही स्वस्थ समाज हो सकता है, भले उसका
नाम कुछ भी क्यों न रखा जाए। (२१६) • जिसमें आत्माभिमान नहीं, वह कैसा मानव! (२१७) • स्वयं को महान या अतिरिक्त मानना जितना बुरा है, उससे भी ज्यादा
बुरा है, स्वयं को हीन-दीन-क्षीण मानना। (२१७) • ज्यादा हंसी-मजाक आदि करना तुच्छता का लक्षण है। (२१८) • जो धर्म व्यक्ति की आत्मा में नहीं रहता, जीवन और जीवन-व्यवहार
में नहीं उतरता, वह धर्म वास्तव में धर्म है ही नहीं। (२१४) • लक्ष्य की सिद्धि के लिए जिसमें मृत्यु का वरण करने की उमंग हो,
वही जीता है और उसी की निष्ठा निष्ठा होती है। (२४९) • जो सहन करने का मंत्र नहीं जानता, वह शांति से जी नहीं सकता। • ३७६ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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