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• अनगार-धर्म स्वीकार करना, महाव्रती बनना, साधु-जीवन अंगीकार
करना जीवन का परम सौभाग्य है। (९३) मैं उस भक्ति को महत्त्व देता हूं, जिसके साथ स्थिरता, गंभीरता, चिंतन
और मनन जुड़ा हो तथा जो व्यक्ति के लिए आत्म-शुद्धि एवं पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा बनती हो। (९४) वही कर्म जीवन-विकास का साधन है, मोक्षाराधना में हेतुभूत है, जो राग-द्वेष से सर्वथा अछूता हो, आत्मशुद्धि के लक्ष्य से जुड़ा हो। (९५) सद्गुरु के अभाव में कुगुरु को स्वीकार करने की अपेक्षा निगुरा रह
जाना ही श्रेयस्कर है। (१०८) • व्यक्ति कर्म-बंधन में स्वतंत्र है, पर फल भुगतने में स्वतंत्र नहीं है।
(१०८) • आचार जीवन की मूल पूंजी है। (१२०) विपत्ति ही वह अवसर है, जब व्यक्ति आत्म-चिंतन एवं अंतर्गवेषणा की
ओर मुड़ता है। (१२८) • व्यक्ति स्वयं को सदा सत्कर्म में संलग्न रखे, यही भगवान की सच्ची
आराधना है। (१३२) • सदाचरण धर्म का प्रथम सोपान है। (१२४) • मैत्री और अभय का अविनाभावी संबंध है। (१३६) • जहां अधिकार और सत्ता का प्रश्न तीव्र हो जाता है, वहां मैत्री क्षीण
हो जाती है। (१४०) आत्मप्रकाशी बनना, केवलज्ञान को उपलब्ध होना जीवन के सौभाग्य
का सूचक है। (१५७) • सत्यनिष्ठा धार्मिकता की पहचान है। (१५९) • हृदय-परिवर्तन से ही वास्तविक परिवर्तन संभावित है। (१५९) • संयम और व्रतमय जीवनशैली ही प्रशस्त जीवनशैली है। (१६१) • प्रभु-पूजा का संबंध अपने मन और भावों से है, स्थानविशेष से नहीं।
(१७२) • सत्य का साधक कभी आग्रही नहीं हो सकता और जो आग्रही होता
प्रेरक वचन
- ३७५.
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