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________________ क्षयोपशम-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय-इन चार घात्य कर्मों के हलकेपन को क्षयोपशम कहते हैं। इसमें उपर्युक्त चारों कर्मों के विपाकोदय का अभाव होता है। क्षयोपशम में प्रदेशोदय होता है तथा विपाकोदय का अभाव होता है या मंद विपाकोदय होता है। जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हो चुके होते हैं, उनका क्षय होता है तथा जो उदय में नहीं आए हैं, उनका विपाकोदय नहीं होता, उपशम होता है। चूंकि यह क्षय उपशम द्वारा उपलक्षित है, इसलिए क्षयोपशम कहलाता है। देखें-विपाकोदय। गणधर-तीर्थ-स्थापना के प्रारंभ में होनेवाले तीर्थंकर के विद्वान शिष्य, जो उनकी वाणी का संग्रहण कर उसे अंग-आगम के रूप में गुंफित करते हैं। देखें-अंग, आगम, तीर्थंकर। गति-जीवों का एक वर्गीकरण, जिसका कि आधार जन्मस्थिति या भवस्थिति है। इसके चार प्रकार हैं-१. नरक गति २. तिर्यंच गति ३. मनुष्य गति ४. देव गति।। गुणस्थान-कर्म-विशुद्धि की तरतमता के अनुरूप प्राणी के उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की विभिन्न भूमिकाएं/स्तर गुणस्थान हैं। इन्हें जीवस्थान भी कहा जाता है। गुणस्थान चौदह हैं-१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादनसम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. देशविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्त-संयत ८. निवृत्तिबादर ९. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशांतमोह १२. क्षीण मोह १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली। चारित्र-महाव्रत आदि धर्मों का आचरण करना चारित्र है। चारित्रमोहनीयकर्म-मोहनीयकर्म की वह अवस्था, जो आत्मा के चारित्र गुण को विकृत करती है। छद्मस्थ-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय को छद्म कहते हैं। छद्म का अर्थ है-अज्ञान या केवलज्ञान का अभाव। इस अवस्था में रहनेवाले प्राणी छद्मस्थ कहलाते हैं। प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के समस्त प्राणी छद्मस्थ हैं। छद्मस्थता केवलज्ञान की बाधक स्थिति है। इस बाधा के दूर होते ही प्राणी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। देखें केवलज्ञान, गुणस्थान। - ज्योति जले : मुक्ति मिले .३६४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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